प्रमुख जनजातियाँ और उनकी अर्थव्यवस्था
छत्तीसगढ़ का सम्पूर्ण सामान्य ज्ञान Cg Mcq Question Answer in Hindi: Click Now
- गोंड : जनसंख्या की दृष्टि से गोंड राज्य की सबसे बड़ी जनजाति है। राज्य में इनका जमाव मुख्यतः बस्तर, दंतेवाड़ा, नारायणपुर, कोण्डागाँव, कांकेर, सुकमा, जांजगीरचांपा और दुर्ग जिले में पाया जाता है। ‘गोंड’ शब्द की उत्पत्ति तमिल भाषा के शब्द ‘कोंड’ या ‘खोन्द’ से हुई है। कोंड शब्द कोंडा से निकला है, जिसका अर्थ ‘पर्वत’ होता है। गोंड एवं उसकी उपजातियाँ स्वयं की पहचान ‘कोया’ या कोयतोर’ शब्दों से करती है, जिसका अर्थ ‘मनुष्य’ या ‘पर्वतवासी मनुष्य’ है। गोंड लोग स्वयं को गोंड नहीं बल्कि ‘कोयतोर’ कहना ज्यादा पसन्द करते हैं।
छत्तीसगढ़ के दक्षिण में स्थित अगम्य पर्वत श्रेणियों में इनकी प्रधानता देखने को मिलती है। बस्तर में गोंड आज भी अपनी मूल अवस्था में पाये जाते हैं। इसके अलावा राज्य के दुर्ग, रायगढ़, बिलासपुर एवं सरगुजा जिलों में भी इनका संकेन्द्रण है।
राज्य में गोंडों की कुल मिलाकर 30 शाखाएँ पायी जाती है। गोंड जनजाति का संबंध प्राक् द्रविड़ प्रजाति से है। शारीरिक बनावट की दृष्टि से इनकी त्वचा का रंग काला, बाल सीधे और काले होते हैं। इनके होंठ पतले, नथुने फैले हुए, सिर चौड़ा एवं मुंह चौड़ा होता है। शारीरिक गठन इनका संतुलित होता है, लेकिन ये देखने में सुन्दर नहीं होते हैं।
स्त्रियां पुरुषों की तुलना में कम लम्बी, सुगठित और सुन्दर होती है। इनकी त्वचा का रंग कम काला, होंठ मोटे, आंखें काली, बाल काले और खड़े होते हैं। उष्ण एवं नम जलवायु के कारण गोंड लोग कम वस्त्र पहनते हैं। ये प्रायः सूती वस्त्रों का प्रयोग करते हैं। पुरुष टांगों को ढ़कने के लिए छोटा-सा कपड़ा पहनते हैं। ये कभी-कभी सिर पर कपड़े का एक टुकड़ा बांध लेते हैं। कुछ लोग पेट और रीढ़ की हड्डी को ढ़कने के लिए बन्डी भी पहनते हैं। स्त्रियाँ चोली आदि नहीं पहनती है। उनकी छाती का भाग खुला रहता है। पर्व-त्योहार एवं अन्य उत्सवों के अवसर पर ये आकर्षक वस्त्र पहनते हैं और अपने को सजाते भी हैं।
इनका भोजन मांस व वनों से प्राप्त कन्दमूल एवं फलों पर निर्भर करता है। गोंड जनजाति के क्षेत्र में महुआ के फल पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं, जिससे ये लोग शराब बनाते हैं। ये लोग महुआ के फल को सुखा कर खाते भी हैं। गोंड जनजाति में मदिरापान का काफी ज्यादा प्रचलन है। गोंड जनजाति का मुख्य व्यवसाय कृषि है। ये लोग स्थानान्तरित कृषि भी करते हैं।
गोंड लोग शिकार भी करते हैं। शिकार के अतिरिक्त ये लोग जंगलों से फल-फूल, कन्दमूल, जड़ीबूटियाँ आदि भी एकत्र करते हैं। कुछ गोंड टोकरी, रस्सी आदि बनाकर अपने समीपस्थ शहर में उसे बेचकर अपनी जीविका चलाते हैं। गोंड जनजाति का प्रमुख देवता ‘दूल्हा देव’ है। बड़ा देव, नागदेव, नारायण देव आदि इनके अन्य देवता हैं। इस जनजाति में वधू धन देने की प्रथा है। इनमें विधवा विवाह एवं बहु विवाह का प्रचलन भी पाया जाता है। गोंड में दूध लौटावा विवाह भी देखने को मिलता है। ये लोग बहुत ईमानदार होते हैं।
- कोरबा : यह जनजाति छत्तीसगढ़ के कोरबा, बिलासपुर, सरगुजा, सूरजपुर एवं रायगढ़ जिले के पूर्वी भाग में निवास करती है। यह जनजाति कोलेरियन जनजाति से संबंध रखती है। ये मण्डा और सन्थाल जनजाति के समान जीवन निर्वाह करती है। इनकी उपजातियों में दिहारिया एवं पहाड़ी कोरबा प्रमुख हैं। पहाड़ी कोरबा पहाड़ों पर छिटपुट फैले हुए हैं। दिहारिया कोरबा समतल मैदानों में रहते हैं। कोरबा जनजाति के लोग मुख्यतः जंगली कन्दमूल एवं शिकार पर निर्भर करते हैं। दिहारिया कोरबा कृषि कार्य करते हैं। दिहारिया कोरबा को इस कारण ‘किसान कोरबा’ भी कहा जाता है। पहाड़ी
कोरबा को ‘बेनबरिया’ भी कहा जाता है। अन्य जनजातियों की तरह कोरबा भी अपनी जाति में विवाह करना ज्यादा पसन्द करते हैं। इनमें विवाह वधू-धन चुकाने पर ही होता है। इनमें विधवा-विवाह भी प्रचलित है। इनमें तालाक प्रथा भी पाया जाता है। कोरबा जनजाति की अपनी पंचायत होती है जिसे ‘मैयारी’ कहते हैं।
बड़े-बुढ़े एवं बुद्धिमान लोग कोरबा पंचायत के सदस्य होते हैं। ये लोग भगवान, सूर्य और चंडी देवी के अतिरिक्त पितर पूजा में भी विश्वास रखते हैं। कोरबा जनजाति का मुख्य त्योहार ‘करमा’ होता है। इनमें सर्प पूजा की भी प्रथा है। कोरबा लोग मदिरा प्रिय होते हैं। पहाड़ी कोरबा जनजाति रूढ़िवादी एवं एकान्त प्रिय होते हैं। कोरबा जनजाति में स्थानान्तरित कृषि का प्रचलन भी देखने को मिलता है।
- मारिया : राज्य के बिलासपुर, बस्तर, नारायणपुर एवं कोण्डागाँव जिले में मारिया जनजाति की आबादी पायी जाती है। भूमियां, भुईंहार एवं पांडो इस जनजाति की प्रमुख उपजातियाँ हैं। मारिया जनजाति अधिकांशतया पहाड़ी भागों में निवास करती है। कुछ मारिया लोग मैदानी क्षेत्रों में भी रहते हैं। मैदानी मारिया की बस्तियां अधिकांशतः नदीघाटियों और समतल भूमि पर अवस्थित है। मैदानी मारिया कृषि कार्य करते हैं। मारिया जनजाति की शारीरिक रचना गोंड जनजाति के समान होती है। धार्मिक दृष्टि से मारिया हिन्दू प्रतीत होते हैं। ये हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और यहां तक कि ये सर्प, बाघ आदि को भी पूजते हैं। ‘भीमसेन’ इन लोगों का मुख्य देवता होता है।
- हल्वा : यह जनजाति छत्तीसगढ़ के रायपुर, बस्तर, कोण्डागांव, कांकेर, सुकमा, दंतेवाड़ा और दुर्ग जिले में निवास करती है। इनकी उपजातियों में बस्तरिया, भटेथिया, छत्तीसगढ़िया आदि मुख्य है। हल्वा जनजाति की बोलचाल की भाषा पर मराठी प्रभाव देखने को मिलता है। हल्वा जनजाति के लोग कृषक वर्ग से संबंधित हैं। इनमें से अधिकांश भूस्वामी हैं।
राज्य के अनेक हल्वा लोग कबीर पंथी हैं। इनकी बोली में मराठी भाषा के शब्दों का अधिक प्रयोग होता है। ये लोग अपने शरीर पर कम-से-कम वस्त्रों का प्रयोग करते हैं। इनके रीति-रिवाज हिन्दू जाति से काफी मिलते-जुलते हैं। हलवाहक होने के कारण इस जनजाति का नाम ‘हल्वा’ पड़ा है।
- कोरकू : राज्य के रायगढ़, सरगुजा, बलरामपुर और जशपुर जिलों में कोरकू जनजाति का जमाव पाया जाता है । मोवासी, बवारी, रूमा, नहाला, बोडोया आदि कोरकू की प्रमुख उपजातियां हैं। यह मूलतः एक कृषक जनजाति है साथ-ही-साथ ये कृषक श्रमिक के रूप में अपना जीवन यापन करती हैं। इसके अतिरिक्त ये लोग वनों से वनोपज भी एकत्र करते हैं। ये वनों में मजदूरी कर भी अपना पेट पालते हैं।
कोरकू जनजाति में भूस्वामी कृषकों को ‘राजकोरकू’ और शेष लोग को ‘पोथरिया कोरकू’ कहते हैं। कोरकू जनजाति के लोग हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। दीपावली, दशहरा, होली आदि उत्सवों को ये बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं। इस जनजाति में विवाह संबंध में वधू-धन चुकाना पड़ता हैं। इनमें तालाक प्रथा एवं विधवा विवाह का भी प्रचलन पाया जाता है।
- बैगा : छत्तीसगढ़ के दुर्ग, राजनांदगांव, कवर्धा, मुंगेली, सरगुजा, सूरजमपुर और बिलासपुर जिलों में बैगा जनजाति का निवास पाया जाता है। ‘बैगा’ शब्द का शब्दिक अर्थ ‘पुरोहित’ होता है। इस कारण बैगा लोगों को ‘पंडा’ भी कहा जाता है। ये ‘नागा बैगा’ को अपना पूर्वज मानते हैं। ग्राम के पुरोहित होने के साथ-साथ ये चिकित्सक भी
होते हैं। बैगा द्रविड़ समुदाय की आदिम जनजाति है। ये लोग पहले जमीन बदल-बदल कर खेती (स्थानान्तरित खेती) करते थे, लेकिन कानूनी प्रतिबंध के कारण अब वे स्थायी कृषि करने लगे हैं। वनों की उपज पर जीवन यापन करने वाले बैगा सरल भौतिक संस्कृति में जीते हैं।
7.बिंझवार : विन्ध्याचल पर्वत के मूल निवासी होने के कारण इस जनजाति का यह नाम पड़ा है। राज्य में इनका निवास बिलासपुर, बलौदा बाजार एवं रायपुर जिलों में है। इनका प्रमुख कार्य कृषि है। विन्ध्याचल वासिनी देवी की पूजा करते हैं। इनकी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी है। ये अपने को विन्ध्यवासिनी पुत्र ‘बारह भाई बेटकर’ को अपना पूर्वज मानते हैं। छत्तीसगढ़ के महान क्रांतिकारी वीर नारायण सिंह इसी समुदाय के थे।
- कमार : यह एक छोटी जनजाति है जो रायपुर, गरियाबंद, बिलासपुर, दुर्ग, रायगढ़, राजनांदगांव, जांजगीर-चांपा, जशपुर, कोरिया एवं सरगुजा के वन क्षेत्रों में रहते हैं। ये अपने को गोड़ों का वंशज मानते हैं। ये अधिकतर वनों के बीच नदियों के किनारे बसना पसन्द करते हैं। ये स्वयं झोपड़ीनुमा घर बनाते हैं जिसमें एक बाड़ी होती है। कमार पुरुष प्रायः अपने शरीर पर कम वस्त्र पहनते हैं जबकि स्त्रियां केवल एक धोती पहनती है। इनका भोजन चावल, दाल, भाजी, आदि है। ये निरामिष भोजन भी करते हैं।
इनमें मदिरा के सेवन का प्रचलन भी पाया जाता है। इनका प्रमुख देवता दुल्हा देव है। ये जादू-टोनों में विश्वास रखते हैं। ये औजारों की भी पूजा करते हैं। इनमें अपनी भूमि का अभाव है तथा ये अधिकतर कृषि मजदूर के रूप में खेतों में काम करते हैं। शिकार और वनोपज, संग्रहण इनके जीवन-यापन के अन्य आधार हैं। ये शिकार में दक्ष होते हैं। ये लकड़ी और बांस की चीजे बनाने में निपुण होते हैं। समीपस्थ शहरों के बाजारों में बेचकर अपनी जीविका चलाते हैं। हाल के दिनों में इस जनजाति के लोगों ने अपने समीपस्थ बड़े-बड़े कारखानों में भी कार्य करना शुरू किया है।
- कंवर : इसे कनवार के नाम से भी जाना जाता है। यह जनजाति छत्तीसगढ़ में मुख्यतः बिलासपुर, रायपुर, रायगढ़, जाजगीर चांपा एवं सरगुजा जिलों में पायी जाती है। ये लोग अपनी उत्पत्ति महाभारत के कौरव से बताते हैं। ये अपेक्षाकृत अन्य जनजातियों से कुछ विकसित या उससे अधिक शिक्षित होते हैं। छत्तीसगढ़ी इनकी मातृभाषा है।
इस जनजाति में मुर्गा का मांस एवं शराब पीना मना है। संगोत्री विवाह और विधवा विवाह वर्जित है। सगराखंड इनका प्रमुख देवता है। ये कृषक एवं कृषक मजदूर हैं। इनमें आपसी झगड़ों का निपटारा पंचायत द्वारा होता है। पंचायत को दंड देने का अधिकार है। ये स्वच्छता प्रिय होते हैं। ये स्वयं साफ रहते हैं तथा अपने घरों को साफ-सुथरा रखते हैं।
- खैरवार : इन्हें ‘कथवार’ भी कहा जाता है। ये सरगुजा, सूरजपुर, बलरामपुर तथा बिलासपुर जिले में निवास करते हैं। कत्था का व्यवसाय करने के कारण इस जनजाति का यह नाम पड़ा है। ये छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग करते हैं। इनमें साक्षरता बहुत ही कम है।
- खड़िया : यह जनजाति छत्तीसगढ़ में रायगढ़ तथा जशपुर जिलों तक सीमित है। खड़खड़िया (पालकी) ढोने के कारण इस जनजाति का यह नाम पड़ा है। मुंडा परिवार की खड़िया इनकी मातृभाषा है तथा ये सदरी का भी व्यवहार करते हैं। ये पूस-पुन्नी तथा करमा जैसे स्थानीय उत्सव मनाते हैं। इस जनजाति में भी साक्षरता बहुत कम है।
- भैना : यह एक आदिम जनजाति है। राज्य में इनका निवास स्थान सतपुड़ा पर्वतमाला एवं छोटानागपुर पठार के बीच सधन वन क्षेत्र के मध्य बिलासपुर, जांजगीर चांपा, रायगढ़, रायपुर एवं बस्तर जिलों में है। इस जनजाति की उत्पत्ति मिश्र सम्बन्धों के कारण हुआ प्रतीत होता है। ये लोग छत्तीसगढ़ी भाषा का व्यवहार करते हैं। किंवदन्ती के अनुसार ये बैगा और कंवर की वर्ण संकर संतानें हैं।
- 13. भतरा : यह एक आदिम जनजाति है जो बस्तर, दन्तेवाड़ा, कांकेर एवं रायपुर जिले के दक्षिण भाग में रहते हैं। ‘भतरा’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘सेवक’ होता है। अधिकांश भतरा लोग ग्राम-चौकीदार या घरेलू नौकर के रूप में काम करते हैं। ये स्थायी कृषि भी करते हैं। यह जनजाति तीन उपजातियों में विभाजित है—पिट भतरा, सन भतरा तथा अमनाईत ।
पिट भतरा उच्च श्रेणी के माने जाते हैं, जबकि सन भतरा निम्न श्रेणी के होते हैं। तीनों श्रेणी के लोग एक-दूसरे के यहां भोजन नहीं करते जब तक कि इनका विवाह नहीं हो जाता है। इस जनजाति के लोग ‘शिकार देव’ की पूजा करते हैं। ये लोग उड़िया की एक बोली ‘भतरी’ का व्यवहार करते हैं।
- बिरहोड़ : बिरहोड़ का अर्थ है वनेचर या वन्य जाति । राज्य में इस जनजाति का निवास मुख्यतः रायगढ़ एवं जशपुर जिले में पाया जाता है। ये लोग छत्तीसगढ़ी को मातृभाषा के रूप में प्रयुक्त करते हैं। ये अब अपने पूर्वजों की मुंडा भाषा को भूल गए हैं।
- भुंजिया : यह जनजाति राज्य में रायपुर जिले तक ही सीमित है। इनकी मातृभाषा भी ‘भुंजिया’ है जो बस्तर की हल्बी के बहुत निकट है। चारों ओर से गोंड जनजाति से घिरे होने के बावजूद ये लोग गोंडी नहीं बोलते हैं।
- अगारिया : इस जनजाति का जातीय नाम ‘अग्नि’ से व्युत्पन्न हुआ है। यह जनजाति समुदाय आज भी लौह-अयस्क पिघलाने के कार्य में लगा हुआ है। ये लोग अपने को लोहार भी कहते हैं। राज्य में इस जनजाति का निवास क्षेत्र मुख्यतः बिलासपुर जिले में है। ये लोग मातृभाषा के रूप में छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करते हैं।
- आसुर : यह जनजाति रायगढ़ और जशपुर जिलों तक ही सीमित है। ये लोग अपने घरों में मुंडा परिवार की भाषा ‘असुरी’ का प्रयोग करते हैं। यह एक अविकसित जनजाति है। सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से ये ज्यादा लाभान्वित नहीं हुए हैं। इस जनजाति के अधिकांश गांव पहाड़ों पर बसे हुए हैं।
- बिरजिया : ‘बिरजिया’ का अर्थ है- जंगल की मछली। ये अपना मूल निवास सरगुजा जिले में मानते हैं। ये मुंडा परिवार की ‘बिरजिया’ भाषा के साथ ‘सदरी’ का भी व्यवहार करते हैं। ये सरहुल, करमा, फगुआ, रामनवमी आदि उत्सव मनाते हैं।
- धनवार : ‘धनवार’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘धनुष’ से हुई है जिसका अर्थ है—धनुर्धारी। यह गोंड या कंवर की ही एक शाखा मानी जाती है। राज्य में इस जनजाति का निवास बिलासपुर, रायगढ़ तथा सरगुजा जिले में पाया जाता है। ये लोग मातृभाषा के रूप में छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करते हैं। ये लोग धनुष-बाण का प्रयोग करते हैं।
ये शिकार हेतु बांस से बने धनुष तथा घानन वृक्ष की लकड़ी के बने बाण का प्रयोग करते हैं। इनके घरों में धनुष-बाण की उपस्थिति अवश्य होती है। प्रत्येक घर में धनुष-बाण की पूजा होती है। इनमें विवाह के समय भी वर अपने साथ धनुष-बाण लेकर आता है।
- धुरवा : यह जनजाति राज्य में सुकमा एवं बस्तर जिले तक ही सीमित है। ये लोग पहले अपने-आपको ‘परजा’ कहते थे। इनकी मातृभाषा ‘परजी’ द्रविड़ भाषा परिवार से संबद्ध है। ये ये लोग द्वितीय भाषा के रूप में ‘हल्बी’ का प्रयोग करते हैं।
- गदबा : इस जनजाति का निवास मुख्यतः बस्तर जिले में है। इस जनजाति के लोग पहले मुंडा परिवार की भाषा ‘गदबा’ का प्रयोग करते थे लेकिन आज ये अपनी मूल भाषा भूल चुके हैं। अब हल्बी ही इनकी मातृभाषा है।
- कोल : कोल मूल रूप से मुंडारी प्रजाति से सम्बन्धित है। मुंडारी में ‘कोल’ का अर्थ ‘पुरुष’ होता है। राज्य में यह जनजाति सरगुजा, सूरजपुर एवं बलरामपुर जिले तक ही सीमित है। ये हिन्दी की ही स्थानीय बोलियों का व्यवहार करते हैं।
- कंध : ‘कंध’ शब्द द्रविड़ भाषा के ‘कोण्ड’ शब्द से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ होता है—पहाड़ी। इन्हें ‘खोण्ड’ या ‘कोण्ड’ भी कहा जाता है। ये रायगढ़ जिले तक ही सीमित हैं तथा पड़ोसी इन्हें कोंधिया कहा करते हैं। ये संभवतः 200 वर्ष पूर्व यहां आकर बसे थे।
- कोया : ये बस्तर के गोदावरी अंचल में निवास करते हैं। ये लोग यदा-कदा अपने को ‘दोरला’ या ‘कोयतर’ भी कहते हैं। ये गोंड वर्ग के अंतर्गत ही संसूचित हैं। इनकी मातृभाषा का सम्बन्ध द्रविड़ भाषा परिवार से है। साथ-ही-साथ ये लोग हल्बी का भी व्यवहार करते हैं।
- मझवार : इनकी उत्पत्ति गोंड, मुंडा एवं कंवर के वर्ण संकरत्व से मानी जाती है। ये मुख्यतः बिलासपुर जिले के कटघोरा तहसील में व्याप्त हैं। ये मातृभाषा के रूप में छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करते हैं।
- मुण्डा : ये बस्तर के जगदलपुर तहसील तक ही सीमित हैं। ये बस्तर राजवंश के पारम्परिक गायक रहे हैं। ये भतरी तथा हल्बी भाषाओं का प्रयोग करते हैं। बस्तर के मुंडा आर्यभाषी है जबकि रायगढ़ और जशपुर के मुण्डा ऑस्ट्रिक परिवार से सम्बद्ध हैं।
- नगेसिया : इनके जातीय नाम की व्युत्पत्ति ‘नाग’ (सप) से हुई है। ये सरगुजा, जशपुर तथा रायगढ़ जिलों में व्याप्त हैं। इस जनजाति के लोग राजमोहिनी देवी, साहनी गुरु तथा गहिरा गुरु के समाज सुधार कार्यक्रम से बहुत अधिक प्रभावित हुए हैं। ये मुण्डा भाषा परिवार की बोली के साथ छत्तीसगढ़ी का भी व्यवहार करते हैं।
- पाण्डो : ये अपने को पाण्डवों के वंश से जोड़ते हैं। इनका निवास सरगुजा एवं बिलासपुर जिलों में है। ये मातृभाषा के रूप में छत्तीसगढ़ी का इस्तेमाल करते हैं। इनमें शिक्षा का प्रचार-प्रसार अभी तक नहीं हो पाया है।
- परजा : यह धुरवा की ही एक शाखा है। यह मुख्य रूप से बस्तर में निवास करने वाली जनजाति है। ये मातृभाषा के रूप में ‘परजी’ का प्रयोग करते हैं।
- सौरा : संस्कृत साहित्य में वर्णित ‘शबर’ इनके पूर्वज माने जाते हैं। शबरों का ऐतिहासिक विवरण प्राचीन काल से ही मिलता है। ये अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ी का भी व्यवहार करते हैं। इनकी मातृभाषा मुंडा भाषा परिवार से सम्बद्ध है।
- सौंता : ये बिलासपुर जिले के कटघोरा तहसील तक ही सीमित हैं। बूढ़ा सौंता का पुत्र ‘बालक लोढ़ा’ इनका पूर्वज माना जाता है। इनकी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी है।
- पारधी : ये लोग मुख्यतः बस्तर जिले में निवास करते हैं। ये अपने को ‘नाहर’ भी कहते हैं। आखेटक होने के कारण उनका यह नाम पड़ा है। इनकी मातृभाषा गोंडी है, किन्तु ये हल्बी तथा अन्य आर्य भाषाएँ भी जानते हैं।
- परधान : परधान (प्रधान) संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है—मंत्री।
परधान गोंड राजाओं के मंत्री हुआ करते थे। इन्हें ‘पटरिया’ भी कहा जाता है। ये मुख्य रूप से रायपुर, बलौदा बाजार और बिलासपुर जिलों में निवास करते हैं। इनकी मातृभाषा गोंडी है जिसका सम्बन्ध द्रविड़ भाषा परिवार से है। ये गाथावाचक के रूप में जाने जाते हैं। ये गोंड राजाओं के प्रशस्ति गायक भी थे। ‘परसापेन’ की पूजा के समय ये अक्सर संगीतमय हो जाते हैं। गोंड राज्यों के पतन के बाद इनको किसी का संरक्षण नहीं मिला फिर भी आज भी ये संगीत को अपनी आजीविका का साधन बनाए हुए हैं।
- ओरांव : ओरांव जनजाति भाषा के आधार पर द्रविड़ वर्ग की मानी जाती है। ओरांव शब्द गैर आदिवासियों द्वारा दिया गया है। ये लोग स्वयं को ‘कुरूख’ कहते हैं। यह जनजाति छत्तीसगढ़ में विशेष रूप से रायगढ़, जशपुर, सरगुजा और बिलासपुर जिलों में पायी जाती है। इस जनजाति के लोग धांगड़, धनका, किसान आदि नामों से भी जाने जाते हैं।
ओरांव के अनेक गोत्र टोटम से सम्बन्धित होते हैं। इनके नाम पशुओं, पक्षियों, मछली, पौधों तथा वृक्षों के नाम पर रखे जाते हैं। इनमें लड़के व लड़कियां विवाह से पूर्व स्वच्छन्द रहते हैं। इनमें विवाह पूर्व यौन सम्बन्धों पर आपत्ति नहीं की जाती है। विवाह के समय वधू के पिता को वधू-धन देने का प्रचलन है। इनमें तलाक, विधवा विवाह, बहुविवाह का भी प्रचलन है। ये लोग अपने शरीर पर गोदना गुदवाते हैं। ओरांव के
प्रमुख देवता ‘धर्मेश’ हैं, जो सूर्य देवता का ही रूप है। महादेव पर भी इनकी आस्था होती है। ये लोग मुख्यतः कृषि करते हैं। जीवन यापन का साधन कृषि होने से ये लोग स्थायी रूप से गांवों में रहते हैं। शिकार करना, मछली पकड़ना, पशुपालन आदि इनके अन्य व्यवसाय हैं। इनकी अपनी सामाजिक व्यवस्था होती है। गांव का मुखिया ‘महतो’ एवं पुजारी ‘बैगा’ होता है।
उपर्युक्त जनजातियों के अतिरिक्त 8 अन्य जनजातियाँ भी है, जो छत्तीसगढ़ में पायी जाती है। ये हैं—भूमिया, सवरा, माझी, सहरिया, कोलाम, मावासी, भील तथा अंध । ये सभी अविभाजित मध्य प्रदेश की जनजातियाँ हैं। इनमें सवरा, मांझी तथा मवासी को छोड़कर शेष की उपस्थिति नगण्य है। ये छत्तीसगढ़ के मूलवासी की श्रेणी में नहीं आते हैं।