छत्तीसगढ़ का मराठा शासन : 1741-1854 ई०
रतनपुर राज्य का अंत वर्ष 1741 ई० छत्तीसगढ़ के राजनीतिक इतिहास में परिवर्तन का काल माना जाता है। इस समय तक कल्चुरि शासन छत्तीसगढ़ में पतन की कगार पर पहुंच चुका था। केन्द्रीय शक्ति का बहुत पहले से ही विघटन आरंभ हो चुका था और छोटे-छोटे शासक राज्य की जड़ों को दिन-प्रतिदिन खोखला बना रहे थे।
ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर नागपुर के भोंसला/भोंसले शासक के सेनापति भास्कर पंत ने 30,000 सैनिकों के साथ रतनपुर राज्य पर आक्रमण कर दिया ।
उस समय यहाँ रघुनाथ सिंह का शासन था। उनकी अवस्था 60 वर्ष थी। वे अपने एकमात्र पुत्र की मृत्यु के शोक से पीड़ित थे तथा युद्ध के लिए तनिक भी तैयार न थे।
अतः उन्होंने भास्कर पंत के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। भास्कर पंत ने रघुनाथ सिंह के आत्मसमर्पण के बाद यद्यपि उसके साथ व्यक्तिगत क्रूरता का परिचय नहीं दिया, परन्त रतनपर राज्य को आतंकित करने की दष्टि से उसने वहाँ के निवासियों पर 1 लाख रुपये का जुर्माना ठोक दिया तथा राजकोष का धन लूट लिया।
भास्कर पंत ने भोंसला शासन के प्रतिनिधि के रूप में रघुनाथ सिंह को रतनपुर पर शासन करने का अधिकार पुनः दे दिया, परन्तु अपने स्वामी के हितों की देखभाल के लिए उसने वहाँ कुलीनगीर (कल्याण गिरी) नामक व्यक्ति को नियुक्त किया। वर्ष 1745 ई० में रघुनाथ सिंह की मृत्यु हो गई।
उसके बाद मोहन सिंह को रतनपुर राज्य का नया शासक नियुक्त किया गया।
रतनपुर राज्य में मोहन सिंह का शासन वर्ष 1758 ई० तक चलता रहा और जब उसकी मृत्यु हुई तब सर्वप्रथम भोंसला शासक ने वहाँ अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया, जिसके अनुसार रघुजी I का पुत्र बिम्बाजी भोंसला वहाँ का प्रथम मराठा शासक हुआ। इस प्रकार, रतनपुर के कल्चुरि राज्य का सदा-सदा के लिए अंत हो गया।
छत्तीसगढ़ में मराठा के चार चरण
छत्तीसगढ़ में मराठा शासन को चार चरणों में विभाजित किया जा सकता है :
I. प्रत्यक्ष भोंसला शासन 1758-1887 ई०
II. सूबा शासन (सूबा सरकार) 1787-1818 ई०
III. ब्रिटिश संरक्षणाधीन मराठा शासन 1818-1830 ई०
IV. पुनः भोंसला शासन 1830-1854 ई०