कलचुरी काल: 875-1741 ई०
छत्तीसगढ़ के इतिहास में कल्चुरि राजवंश का महत्वपूर्ण स्थान है। छत्तीसगढ़ का वास्तविक राजनीतिक इतिहास कल्चुरि राजवंश की स्थापना के साथ आरंभ होता है।
कल्चुरियों ने छत्तीसगढ़ पर लगभग नौ सदियों तक (875-1741ई०) राज्य किया। कल्चुरि (हैहय) राजपूतों ने भारत के अनेक स्थानों पर शासन किया। उनकी कई शाखाएँ थीं जिनमें से दो छत्तीसगढ़ में स्थापित हुईं-रतनपुर एवं रायपुर
I. रतनपुर के कल्चुरिज
नवीं सदी के अंत में त्रिपुरी के कल्चुरियों ने छत्तीसगढ़ में अपनी शाखा स्थापित करने का प्रयत्न किया।
कोक्कल I (850-890) के पुत्र शंकरगण II (मुगधतुंग प्रसिद्ध धवल) ने कोशल नरेश बाणवंशी विक्रमादित्य I से पालि प्रदेश (विलासपुर जिलान्तर्गत पाली नामक स्थान के आस-पास का क्षेत्र) जीत लिया।
शंकरगण ने इस प्रदेश पर अपने छोटे भाई की नियुक्ति की। पालि प्रदेश की राजधानी तुम्माण (आधुनिक तुम्मान, जिला बिलासपुर) थी। यहाँ कल्चुरियों की दो-तीन पीढ़ियों ने शासन किया। इसके बाद वे स्वर्णपुर (आधुनिक सोनपुर, उड़ीसा) के सोमवंशी राजा द्वारा पराजित कर दिए गए।
कलिंगराज : 1000-20 ई० ___ त्रिपुरी के कल्चुरि नरेश कोक्कल II (990-1015) ने लगभग 1000 ई० में अपने पुत्र कलिंगराज को दक्षिण कोशल भेजा।
उसने दक्षिण कोशल को जीतकर तुम्माण नगर में जहाँ उसके पूर्वजों ने राज्य किया था अपनी राजधानी स्थापित की। इस प्रकार, दक्षिण कोशल में कल्चुरि शाखा का पुनस्थापक या वास्तविक संस्थापक कलिंगराज था।
कमलराज : 1020-45 ई०
कलिंगराज के बाद उसका पुत्र कमलराज तुम्माण का शासक बना। उसने अपने समकालीन त्रिपुरी के कल्चुरि शासक गांगेयदेव के स्वामित्व को स्वीकार किया। कमलराज ने गांगेयदेव के उड़ीसा अभियान में साथ दिया।
रत्नराज/रत्नदेव I: 1045-65 ई०
कमलराज के बाद उसका पुत्र रत्नराज तुम्माण का शासक बना। उसने तुम्माण में आम्रवन, फलोद्यान और पुष्पोद्यान आदि लगवाए तथा मंदिर का निर्माण करवाया ।
रत्नराज ने मणिपुर नामक प्राचीन ग्राम को नगर के रूप में परिवर्तित कर उसे रत्नपुर (रतनपुर) नाम दिया और अपनी राजधानी तुम्माण से हटाकर रत्नपुर में स्थापित की। इस नये नगर को उसकी समृद्धि के कारण ‘कुबेरपुर’ (कुबेर का नगर) की उपमा दी गई।
पृथ्वीदेव I : 1065-90 ई०
रत्नराज के मरणोपरांत उसका पुत्र पृथ्वीदेव I रतनपुर का शासक बना। उसने अपने राज्य का विस्तार किया और ‘सकल कोसलाधिपति’ की पदवी धारण की।
वह कोशल के 21,000 गाँवों का स्वामी था। वह धार्मिक प्रवृत्ति का था इसलिए उसने अपने शासनकाल में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया (जैसे-तुम्माण का पृथ्वीदेवेश्वर शिव मंदिर) तथा रतनपुर में एक विशाल तालाब खुदवाया।
जाजल्लदेव I : 1090-1120 ई०
पृथ्वीदेव का उत्तराधिकारी उसका पुत्र जाजल्लदेव Iहुआ । उसने अपने राज्य का विस्तार किया तथा लांजी, भण्डारा के अतिरिक्त बस्तर के नागवंशी शासक सोमेश्वरको पराजित किया। उसने उड़ीसा पर आक्रमण कर सुवर्णपुर के राजा भुजबल को पराजित किया ।
इन विजयों के कारण उसकी कीर्ति उत्तर में अमरकण्टक से दक्षिण में गोदावरी तक, पश्चिम में बरार से पूर्व में उड़ीसा तक फैल गई।
उसने त्रिपुरी की अधीनता को अस्वीकार कर अपने को स्वतंत्र घोषित किया और अपने नाम के सोने एवं तांबे के सिक्के जारी किए। उसने अपने नाम पर जाजल्लपुर (वर्तमान जांजगीर) नगर बसाया, पाली स्थित मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और एक बड़ा तालाब खुदवाया।
रलदेव II : 1120-35 ई०
जाजल्लदेव I के पश्चात् उसका पुत्र रत्नदेव II रतनपुर का शासक बना। उसने त्रिपुरी नरेश गयाकर्ण को युद्ध में पराजित कर अपने पिता की भाँति त्रिपुरी की प्रभुसत्ता मानने से इंकार कर दिया।
उसके राज्यकाल की दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना गंगवंशी शासक अनंतवर्मा चोडगंग पर विजय की है।
उसने गौड़ (बंगाल) के शासक तथा खिज्जिजंग के भंज शासक को भी हराया। वह विद्याप्रेमी व कलाप्रेमी था। उसने विद्वानों को संरक्षण दिया तथा कई मंदिरों व सरोवरों का निर्माण कराया।
पृथ्वीदेव II : 1135-65 ई०
रत्नदेव II के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीदेव II रतनपुर का शासक बना। उसके सेनापति जगपाल ने सरहरागढ़, मचका-सिहावा, कांदा डोंगर, काकरय के क्षेत्र को जीतकर राज्य का विस्तार किया।
इसके अतिरिक्त पृथ्वीदेव II ने चक्रकोट (वर्तमान चित्रकूट, बस्तर जिला) के गंग शासक को पराजित किया।
उसने कई मंदिरों व तालाबों के निर्माण के साथ-साथ कई बगीचे भी लगवाए। उसके द्वारा जारी चांदी के सिक्के बहुत ही छोटे आकार के थे। रतनपुर शाखा के कल्चुरियों के प्राप्त अभिलेखों में सर्वाधिक अभिलेख पृथ्वीदेव II के ही हैं।
जाजल्लदेव II : 1165-68 ई० पृथ्वीदेव II के बाद उसका कनिष्ठ पुत्र जाजल्लदेव II रतनपुर का शासक बना। पर उसका शासनकाल अल्पकालीन और समस्यापूर्ण साबित हुआ।
उसके शासनकाल में त्रिपुरी नरेश जयसिंह ने दक्षिण कोशल पर आक्रमण किया, जो जाजल्लदेव II द्वारा विफल कर दिया गया।
जगतदेव/जगदेव : 1168-78 ई०
जाजल्लदेव II की मृत्यु से राज्य में उत्पन्न अव्यवस्था को दूर करने के लिए जगतदेव (जाजल्लदेव II का बड़ा भाई) पूर्व देश से आया और उसने सत्ता अपने हाथों में लेकर अव्यवस्था को दूर करने का प्रयास किया। उसके प्रयासों से राज्य में शांति बहाल हो सकी।
रत्नदेव III :
1178-98 ई०किमत वर्ष 1178 ई० में जगतदेव का पुत्र रत्नदेव III गद्दी पर बैठा। उसके शासनकाल में पुनः अव्यवस्था फैलने लगी। राज्य की सेना भी कमजोर हो गई। स्थिति में सुधार लाने के लिए रत्नदेव III ने गंगाधर नामक एक ब्राह्मण को राज्य का प्रधानमंत्री नियुक्त किया। प्रधानमंत्री गंगाधर के प्रयासों से राज्य में पुनः शांति बहाल हुई।
गंगाधर ने खरोद स्थित लखनेश्वर मंदिर सभामंडल का जीर्णोद्धार करवाया। गंगाधर ने कई मंदिरों का निर्माण करवाया जिनमें से एक रतनपुर के निकट स्थित एकवीरा देवी (शक्ति का एक रूप) का मंदिर आज भी अच्छी स्थिति में है।
परवर्ती शासक : 1198-1741 ई० माया
_रत्नदेव III के बाद उसका पुत्र प्रतापमल्ल रतनपुर राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। प्रतापमल्ल के बाद से कल्चुरि राज्य से संबंधित लेख उपलब्ध नहीं हैं।
परवर्ती शासकों ने राज्य शासन में प्रचलित प्रथाओं में बहुत हेर-फेर नहीं किया इसलिए वे कई पीढ़ियों तक लड़ाई के धूम-धड़ाकों से बचे रहे और शांतिपूर्वक शासन करते रहे।
परवर्ती शासकों के नाम हैं :प्रतापमल्ल (1198-1200), भानु सिंह (1200-21), नरसिंहदेव (1221_51), भसिंहदेव (1251_76), प्रतापसिंहदेव (1276_1319), जयसिंहदेव (1319-47), धर्मसिंहदेव (1347-69), जगन्नाथसिंहदेव (1369-1407), वीरसिंहदेव (1407-26), कमलदेव (1426-36), शंकर सहाय (1436-54), मोहन सहाय (145472), दादू सहाय (1472-97), पुरुषोत्तम सहाय (1497-1519), बाहर सहाय/बाहरेन्द्र (1519–46), कल्याण सहाय (1546-83), लक्ष्मण सहाय (1583-91), शंकर सहाय (1591-1606), मुकुंद सहाय (1606-17), त्रिभुवन सहाय (1617-45), आदिती सहाय (1645-59), रणजीत सहाय (1659-85), तखत सिंह (1685-99), राजासिंह देव (1699-1720), सरदार सिंह (1720-32), रघुनाथ सिंह (1732-41)।