छत्तीसगढ़ की जनजातियों की समस्याएं सामान्य रूप में जनजातियों की समस्याओं को निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत विवेचित किया जा सकता है-
- प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण की समाप्ति ब्रिटिश शासन के आगमन से पूर्व जनजातियां प्राकृतिक संसाधनों (भूमि, जंगल, वन्य जीवन, जल, मिट्टी, मत्स्य इत्यादि) के ऊपर स्वामित्व एवं प्रबंधन के निर्वाघ अधिकारों का उपभोग करती थीं । औपनिवेशिक शासन के अधीन अधिकाधिक जनजातीय क्षेत्रों को शामिल किया गया है । छत्तीसगढ़ में औद्योगीकरण की शुरूआत तथा खनिजों की खोज ने जनजातीय क्षेत्रों को बाहरी जगत के लिए खोल दिया ।
जनजातीय नियंत्रण का स्थान राजकीय नियंत्रण द्वारा ले लिया गया । इस प्रकार जनजातियों की कभी न खत्म होने वाली विपन्नता का दौर शुरू हुआ ।
स्वतंत्रता के बाद विकास प्रक्रिया के साधनों के रूप में भूमि एवं वनों पर दबाव बढ़ता गया । इसका परिणाम भूमि पर से स्वामित्व अधिकारों की समाप्ति के रूप में सामने आया।इसने बेमियादी ऋणग्रस्तता भूस्वामी, महाजन, ठेकेदार तथा अधिकारी जैसे शोषणकर्ता वर्गों को जन्म दिया। संरक्षित एवं वनों एवं राष्ट्रीय पाक की अवधारणाओं ने जनजातियों में अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटने का भाव उत्पन्न किया और वे अपनी आजीविका के सुरक्षित साधनों से वंचित होते गये ।
- शिक्षा का अभाव जनजातीय अंधविश्वास व पूर्वाग्रह, अत्यधिक गरीबी, कुछ शिक्षकों व अन्य सुविधाओं की कमी आदि ऐसे कारक हैं, जो जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा के विस्तार को बाधित करते हैं। शिक्षा के प्रसार के द्वारा ही जनजातियों को विकास प्रक्रिया में सच्चा भागीदार बनाया जा सकता है।
छत्तीसगढ़ का सम्पूर्ण सामान्य ज्ञान Cg Mcq Question Answer in Hindi: Click Now
- विस्थापन एवं पुनर्वास: स्वतंत्रता के पश्चात् विकास प्रक्रिया का केंद्र बिंदु भारी उद्योगों एवं कोर सेक्टर का विकास रहा है । इसके परिणामतः विशाल इस्पात संयंत्र, शक्ति परियोजनाएं एवं बड़े बांध अस्तित्व में आये, जिन्हें अधिकतर जनजातीय रिहाइश वाले क्षेत्रों में स्थापित किया गया ।
इन क्षेत्रों में खनन सम्बंधी गतिविधियां भी तीव्र होती गयीं । इन परियोजनाओं हेतु सरकार द्वारा जनजातीय क्षेत्रों की भूमि का विशाल पैमाने पर अधिग्रहण किया गया, जिससे जनजातीय लोगों के विस्थापन की समस्याएं पैदा हुई । छोटा नागपुर, ओडीशा, प. बंगाल, छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश के जनजातीय संकेंद्रण वाले क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हुए । सरकार द्वारा प्रदान की गयी नकद क्षतिपूर्ति की राशि व्यर्थ के कार्यों में अपव्यय हो गयी।
औद्योगिक क्षेत्रों में विस्थापित जनजातियों को बसाने के समुचित प्रयासों के अभाव में ये जनजातियां या तो निकट की मलिन बस्तियों में रहने लगीं या अकुशल श्रमिकों के रूप में निकटवर्ती प्रदेशों में प्रवास कर गयीं । शहरी क्षेत्रों में इन्हें जटिल मनोवैज्ञानिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, क्योंकि ये गहरी जीवन शैली एवं मूल्यों के साथ सामंजस्य स्थापित करने में समर्थ नहीं हो पाती हैं।
- स्वास्थ्य एवं कुपोषण की समस्याएं: आर्थिक पिछड़ेपन एवं असुरक्षित आजीविका के साधनों के कारण जनजातियों की कई स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है ।
जनजातीय क्षेत्रों में मलेरिया, क्षय रोग, पीलिया, हैजा तथा अतिसार जैसी बीमारियां व्याप्त रहती हैं । लौह तत्व की कमी, रक्ताल्पता, उच्च शिशु मृत्यु दर एवं जीवन प्रत्याशा का निम्न स्तर आदि समस्याएं कुपोषण से जुड़ी हुई हैं।
सरकार स्वास्थ्य तथा चिकित्सा की दिशा में अधिक से अधिक सुविधायें प्रदान करने की इच्छुक है किन्तु यह भी एक सच्चाई है कि अधौरा में जिस जमीन को अस्पताल के लिए आवंटित किया गया था उसपर आज तक अस्पताल नहीं बन पाया और सालों से उस जमीन पर सीआरपीएफ का कैम्प लगा हुआ है। इसके विरोध में आदिवासियों और कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हाल ही में आंदोलन भी किया मगर इसका कुछ भी फायदा होता नहीं दिख रहा है। साथ ही अधौराप्रखंड की ही बात करें तो वहां के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र देवरी गांव में एक उप स्वास्थ्य केंद्र है जो नाम मात्र का है, वहीं भडेहरा गांव में तो नाम मात्र का भी कोई स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है। - ऋणग्रस्तता आदिवासी लोग अपनी गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी तथा अपने दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण ऋण लेने को मजबूर होते हैं, जिसके कारण दूसरे लोग इनका फायदा उठाते हैं । आदिवासियों के लिए ऋणग्रस्तता की समस्या सबसे जटिल है जिसके कारण जनजातीय लोग साहूकारों के शोषण का शिकार होते हैं। नृजातीय अध्ययनों तथा प्रमाणों से यह स्पष्ट पता चलता है कि ठेकेदारों तथा अन्य लोगों के द्वारा इनके क्षेत्रों में हस्तक्षेप से पूर्व ये जनजातियां इतनी दुर्बल, निर्धन तथा विवश नहीं थीं। ये लोग आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थे।
वन सम्पदा पर इनका अधिकार था। दुर्भाग्यवश जब आर्थिक विकास की योजनाओं के अंतर्गत जनजातीय क्षेत्रों में विकास की बयार आई तथा इनके क्षेत्र सभी प्रकार के लोगों के लिए खोल दिए गए, तो विकास का लाभ उठाने के लिए ये जनजातियां तैयार नहीं थीं। प्रशासन के संगठित प्रयास की अनुपस्थिति में बाहरी तथा तथाकथित सभ्य लोगों ने इन जनजातियों की संवेदनशीलता का भरपूर लाभ उठाया। - भूमि हस्तांतरण आदिवासी समाज मुख्य रूप से अपनी जीविका के लिए कृषि पर ही आश्रित होता है। आकड़ों के अनुसार लगभग 90 प्रतिशत जनजातीय आबादी कृषक है । जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों को अपनी भूमि से बहुत लगाव होता है। जबकि जनसंख्या वृद्धि के कारण भूमि की मांग में वृद्धि हुई है। साथ ही संचार व्यवस्था का विस्तार होने से समस्त जनजातीय क्षेत्र बाहरी लोगों के लिए खुल गया है । इससे भूमि हस्तांतरण जैसी समस्या बढ़ी है। बाहरी वर्ग के कारण भूमि अधिग्रहण काफी हुआ है । भूमि हस्तांतरण एक मुख्य कारण है जिससे आज उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय हुई है ।
जब से ये जनजातियां मुख्य धारा और इनकी वित्त संस्थाओं के सम्पर्क में आयीं, धन की कमी के कारण उनकी भूमि का हस्तांतरण बढ़ता गया। सीमित संसाधनों में रहने वाले आदिवासियों को आज विवाह, उत्सवों, कपड़ों, मदिरा तथा अन्य आवश्यकताओं के लिए सदैव धन की आवश्यकता रहने लगी है। साथ ही कृषि भूमि भी कम उपज वाली होने के कारण इन्हें खाने की सामग्री भी बाजार से खरीदनी पड़ती है । यहां देखने वाली बात यह है कि पैसों के अभाव में ये साहूकारों और दुकानदारों से ऋण लेते हैं और बाद में वही कर्ज चुकता नहीं कर पाने के कारण उन्हें अपनी भूमि से हाथ धोना पड़ता है, यही वजह है कि भूमि हस्तांतरण का एक मुख्य कारण ऋण भी है ।
- गरीबी निश्चित रूप से कहीं न कहीं आदिवासी समस्याओं का महत्वपूर्ण तत्व गरीबी से जुड़ा है। ऋणग्रस्तता हो या भूमि हस्तांतरण सभी के पीछे गरीबी ही मुख्य कारक है । पूरे छत्तीसगढ़ के लिए गरीबी एक अभिशाप है, हमारे यहां गरीबी का स्तर यह है कि बहुत से लोगों को बमुश्किल एक वक्त का ही भोजन नसीब हो पाता है ।
यह हालात अनुसूचित जनजातियों के लिए और भी सोचनीय है।गरीबी की इस स्थिति के लिए बहुत से
कारण जिम्मेदार हैं जिसमें आदिवासी तो हैं ही पर देश के सामाजिक और राजनीतिक हालात उससे कहीं ज्यादा इसके लिए दोषी हैं । देश में ‘गरीबी हटाओ’ जैसे कार्यक्रम भी बने, मगर उसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पाया ।राज्य सरकार ने भी गरीबी कम करने के लिए भूमि सुधार, कृषिगत आय और अधिक्य का पुनः वितरण और रोजगार बढ़ाने की दृष्टि से शिक्षा सम्बन्धी कई योजनाएं चलाई किन्तु उसे भी पूर्ण रूप नहीं दिया जा सका । साथ ही आदिवासियों से जंगलों के वन-उत्पाद संबंधित उनके परम्परागत अधिकार पूरी तरह से छिन लिए गए । जनजातियों की अच्छी उपजाऊ जमीनें बाहरी लोगों के हाथ में चली गई ।
- बेरोजगारी इधर बाहरी लोगों के प्रवेश के कारण आज उनकी उपजाऊ जमीन खुद उनकी नहीं रही। साथ ही जंगलों पर अपना अधिकार समझने वाले आदिवासियों का इनपर भी अब कोई अधिकार नहीं रहा। अशिक्षित और कम शिक्षित होने के कारण इनके रोजगार के साधन भी सीमित ही है। कल तक कृषि को मुख्य पेशा बनाने वाले यह लोग अब मजदूरी करने को मजबूर हैं। सरकार के द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए जवाहर रोजगार योजना जैसी रोजगार की योजना चलाई जा रही है, किन्तु वह भी अपर्याप्त है।
- मदिरापान आदिवासियों में मदिरापान काफी लोकप्रिय है। चाहे वह अपने प्रमुख पेशे के रूप में हो या सेवन के लिए। अधिकांशतः आदिवासी मदिरा का निर्माण स्वयं करते हैं । मदिरा बनाने के लिए वह महुए के फल को इस्तेमाल में लाते हैं । मदिरापान सदियों से उनकी सामाजिक परम्परा का भाग रहा है । आदिवासी महुए के अलावा बाजरे और चावल से भी मदिरा का निर्माण करते हैं । आदिवासियों के पास अपनी बनाई मदिरा पर्याप्त मात्रा में होने के बावजूद सरकार द्वारा लाइसेंस प्राप्त ठेकेदारों द्वारा बाहरी मदिरा के विक्रय ने आदिवासियों को बहुत सी समस्याओं में उलझा दिया है । मदिरा एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा बाहरी असामाजिक तत्व इन पिछड़े समुदायों के बीच पहुंचकर आपत्तिजनक कार्य करते हैं । साथ ही इसके लत में पड़कर आदिवासी अपने को आर्थिक रूप से और भी कमजोर करते हैं।
- शिक्षा का अभाव शिक्षा मानव के विकास में सहायक होता है । आदिवासी समाज का शिक्षित न होना बहुत बड़ी समस्या है। आदिवासी समाज का शिक्षा से कम सरोकार होना उनके कई समस्या से जुड़ा हुआ है । ऋणग्रस्तता, भूमि हस्तांतरण, गरीबी, बेरोजगारी, स्वास्थ्य आदि कई समस्यायें हैं जो शिक्षा से प्रभावित होती हैं । जनजातीय समूहों पर औपचारिक शिक्षा का प्रभाव बहुत कम पड़ा है। इधर शिक्षा से जुड़ी कई योजनायें हैं जिनमें से कुछ केंद्र सरकार ने सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर ही केंद्रित रखा है ।
- संचार सदियों से आदिवासी समाज के लोग घने जंगलों और दूरवर्ती क्षेत्रों में रहते आए हैं, जहां आम लोगों का पहुंचना बहुत ही मुश्किल होता है। यही कारण है कि वहां संचार माध्यम की कमी है। आज के परिवेश में ये मानी हुई बात है कि किसी भी क्षेत्र के विकास में संचार व्यवस्था का होना अत्यंत आवश्यक है। आज जिस समाज में टेलीविजन, समाचारपत्र, रेडियो तथा टेलीफोन जैसे संचार माध्यम का अभाव हो वहां का विकास स्वतः ही धीमा पड़ जाता है । हांलाकि इधर कुछ सालों से आदिवासी क्षेत्रों में संचार माध्यमों का विकास बहुत तेजी से हुआ है, किन्तु वह पर्याप्त नहीं है ।
आज हम भले ही कितना भी क्यों न कह लें कि आदिवासी क्षेत्रों में संचार माध्यमों का विकास बहुत तेजी से हुआ है, किन्तु हकीकत है कि मेरे अध्ययन क्षेत्र में संचार माध्यमों का विकास कुछ ही प्रतिशत तक सीमित है और उसकी भी क्या सार्थकता है यह हमें समझने की जरूरत है। जनजातियों के लिए सड़कें सबसे महत्वपूर्ण साधन हैं पर इसी के बन जाने मात्र से ही विकास संभव नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह संचार माध्यम से होने वाले विकास के प्रति आदिवासियों को जागरूक करें और साथ ही इसके विपरीत पड़ने वाले प्रभाव के प्रति भी उन्हें सचेत रखें।
योजनाओं के लक्ष्य/उपलब्धियां
- 1 नर्सिंग पाठयक्रम में निःशुल्क अध्ययन सुविधा योजना 2
- हास्पिटालिटी एवं होटल मैनेजमेंट प्रशिक्षण
- 3 निःशुल्क वाहन चालक प्रशिक्षण योजना
- 4 आदिवासी संस्कृति का परिरक्षण एवं विकास योजनांतर्गत देवगुड़ी निर्माण/मरम्मत
- 5 आदिवासी संस्कृति का परिरक्षण एवं विकास योजनांतर्गत आदिवासी सांस्कृतिक दलों को सहायता
- 6 रविदास चर्मशिल्प योजना
- 7 शहीद वीरनारायण सिंह लोक कला महोत्सव
- 8 गुरू घासीदास लोक कला महोत्सव
- 9 शहीद वीरनारायण सिंह स्मृति सम्मान पुरस्कार
- 10 स्व0 डाॅ0 भंवर सिंह पोर्ते स्मृति आदिवासी सेवा सम्मान पुरस्कार
- 11 गुरू घासीदास सामाजिक चेतना एवं अनुसूचित जाति उत्थान सम्मान पुरस्कार
- 12 डाॅ0 भीमराव अंबेडकर जयंती योजना
- 13 पोस्ट मेट्रिक छात्रवृत्ति
- 14 छात्रावास एवं आश्रम अंतर्गत संचालित योजनाएं
- 15 अशासकीय संस्थाओं को अनुदान
- 16 परीक्षा पूर्व प्रशिक्षण केंद्र
- 17 विशिष्ट शैक्षणिक संस्थायें
- 18 क्रीड़ा परिसर
- 19 प्रशिक्षण सह उत्पादन केन्द्र
- 20 नागरिक अधिकार एवं संरक्षण प्रकोष्ठ
- 21 एकलव्य
- 22 प्राधिकरण
- 23 एकलव्य, आदिम जाति तथा अनुसूचित जाति उत्कर्ष योजना, विज्ञान विकास केंद्र, प्रयास
विभाग के निगम/आयोग/संगठन
- 1 छत्तीसगढ़ आदिवासी मंत्रणा परिषद
- 2 अनुसूचित जनजाति आयोग
- 3 राज्य अनुसूचित जाति आयोग
- 4 राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग
- 5 छत्तीसगढ़ राज्य अल्प संख्यक आयोग
- 6 हज कमेटी
- 7 वक्फ बोर्ड
- 8 राज्य उर्दू अकादमी
- 9 आदिम जाति अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान
- 10 छत्तीसगढ़ राज्य अन्त्यावसायी सहकारी वित्त एवं विकास निगम