छत्तीसगढ़ की शिल्प एवं चित्रकला सामान्य ज्ञान CG Chitrakala GK in Hindi

cg chitrakala samanya gyan 

आदिवासी पारम्परिक कलाएं किसी न किसी अनुष्ठान से जुडी होती है ।

 ये दो प्रक्कर की होती है – प्रदर्शनकारी कलाएं और रूपंकर कलाएं प्रदर्शनकारी कलाओं के अन्तर्गत नृत्य, नाटय आदि आते है । रूपंकर कलाओं के अन्तर्गत वे सभी कलाएं आती है जिनके द्वारा आदिवासी अपने कालभाव को रूपाकार देते है ।

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 जनजातीय कलाओं की विशेषता 

  • आदिवासी कौशल को दर्शाती है ।
  • ऐतिहासिकता का प्रमाण है।
  • स्वदेशी निर्मित उपयोगी है ।
  • सौंदर्य पर है ।
  • आजीविका का साधन है ।

 महत्व 

  • सामाजिक महत्व
  • आर्थिक महत्व
  • धार्मिक महत्व

रूपंकर कलाएं – शिल्प विधाओं के संरक्षण, विस्तार और सौन्दर्यपरकता में कई जातियों के पुराप्रतीक और ऐतिहासिक स्मृतियों को सहज रुप से देखा जा सकता है, जिसमें उनकी प्राचीन कला और संस्कृति का परिचय मिलता है। जनजातियों के बारे में यह आश्यर्चजनक सत्य है कि उनका जीवन एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में होता है। वे किसी बाहा वस्तु पर निर्भर नहीं होते। एक आदिवासी मिट्टी, लकडी, लोहे, बाँस, घास -पत्ता आदि की उपयोगी और कलात्मक वस्तुओं का सूजन परम्परा से करता आया है। इसी कारण जनजातियों के पारम्परिक शिल्पों में वैविध्य के साथ आदिमता सहज रूप से दिखती है। मुख्य रूप से जनजातीय शिल्प के निम्नलिखित स्वरूप मिलते हैं–

  1. मिट्टी शिल्प

  • राज्य में बस्तर का मिट्टी शिल्प अपनी विशेष पहचान रखता है। मिटटी शिल्प आदि शिल्प है । मनुष्य ने सबसे पहले मिटटी के बर्तन बनाए, मिट्टी के खिलौने और मूर्तियाँ बनाने की प्राचीन परम्परा है ।
  •       रायगढ़, सरगुजा, राजनांदगांव आदि के मिट्टी शिल्प अपनी अपनी निजी विशेषताओं के कारण महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
  •       लोक और आदिवासी दैनिक जीवन में उपयोग में जाने वाली वस्तुओं के साथ कुम्हार परम्परागत, कलात्मक रूपाकारों का भी निर्माण करते है।
  •       मिदृटी में छतीसगढ़ के बस्तर के शिल्पियों द्वारा अत्यंत सुन्दर कलात्मक बारीक अलंकरण का कार्य किया जाता है। अत: बस्तर के मिट्टी शिल्प सबसे अलग पहचान जाते है ।
  •       सरगुजा में लखनपुर के पास सोनाबाई ने मिट्टी शिल्प का सुंदर संसार रच रखा है।
  •       बस्तर का टेराकोटा मिटटी शिल्पा प्रसिद्ध है । इसके प्रमुख केंद्र है – नगरनार, नारायणपुर, कुम्हारपारा – कोंडागांव, एडका
  •       मिट्टी ने नए आकार लिए है जिसके तहत बाघ, चीतल मुख, देवी देवता, मानव मुखौटे, लैंपशेड, बेल बूटेदार मंगल कलश, गमले, घड़े, कलापूर्ण सुराहियां आदि बनाये जाते है।
  1. काष्ठ शिल्प 

  • बस्तर का काष्ठ शिल्प विश्व प्रसिद्ध है।
  •       यहां के मुड़िया जनजाति का युवागृह घोटुल का श्रृंगार, खंभे, मूर्तियां, देवी झूले, कलात्मक मृतक स्तंभ (memory pillars), तीर-धनुष, कुल्हाड़ी आदि पर सुंदर बेलबूटों के साथ पशु पक्षियों की आकृतियां आदि इसके उत्कृष्ठ उदाहरण है।
  •       छत्तीसगढ़ में कोरकू जनजाति के मृतक स्तंभ, मुरिया जनजाति के युवागृह का श्रृंगार, सरगुजा की अनगढ़ मूर्तियां एवं रायगढ़ के शिल्पकारों के कार्य छत्तीसगढ़ में काष्ठ शिल्प के उत्कृष्ठ उदाहरण है।
  •       जगदलपुर के मानव संग्रहालय में बस्तर के जनजातियां की काष्ठ कलाकृतियों की बारीकियां आश्चर्य में डालने वाली है।
  • शिल्पकार – के.पी. मंडल (बस्तर) – काष्ठ कला।
  •       विशेष – काष्ठ कला नोट – चुनौटी तंबाकू की संदूक को कहते हैं ।

3. बांस शिल्प

  • बाँस जनजातीय जीवन एवं संस्कृति से जुडा महत्वपूर्ण वनोपज है । इनसे निर्मित जीवनोपयोगी वस्तुएँ अत्यंत सौन्दर्यपरक होती हैं- आजकल बाँस शिल्प इनकी जीविका के साथ अभिन्नता से जुड़ गया है ।
  • जादिवासी विभिन्न तरह की दैनिक उपयोगी एवं सजावट की वस्तुएँ अपने हाथों से तैयार करते है ।
  • बस्तर, रायगढ़, सरगुजा में बांस शिल्प के अनेक परंपरागत कलाकार है ।
  •  विशेष रूप से बस्तर जिले की जनजातियों में बांस की बनी कलात्मक चीजों का स्वयं अपने हाथों से निर्माण करते हैं ।
  • कमार जनजाति बांस के कार्यों के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं । गरियाबंद बांस कला केन्द्र -बस्तर में है । बांस कला मछली रखने का पात्र टूटी, पकड़ने का पात्र दान्दर । उँगनिया – उँगनिया एक छोटे साबुत और मजबूत बांस को उंगाई के रूप में मड़ई मेला में प्रयोग किया जाता है ।  छतोड़ी – स्थानीय जनजातियों द्वारा पहनने वाला एक टोपीनुमा। बस्तराँचल में । फड़की – बांस का दरवाजा । पेलजा – सामान्य घरेलू प्रयोजनों में आने वाला पात्र।
  1. पत्ता शिल्प

बस्तर अंचल में पत्तों से भी अनेक उपयोगी कलाकृतियां साकार होती आ रही है । इनके साधन बनते हैं छिंद, सियाड़ी, चेन्दू और चिपटा ।

  •  चेन्दू – श्रावण मास में जब छिंद के नए नए पत्तर निकलते है तब इनके किसलें(नार) से पनारा जाति की स्त्रियां विभिन्न कलाकृतियां बनाती है ।  चेन्दू वस्तुतः छिंद की कोमल शाखाएं होती है । पनारा जाति के लोग छींद के पत्तों का कलात्मक उपयोग करते हैं।
  • सियाड़ी/परसा पत्ती
  • चिपटा- खाद्य पदार्थों को महीने 2 महीने तक सुरक्षित रखने के लिए स्थानीय पत्तियों के माध्यम से बक्से नुमा एक पात्र बनाया जाता है । इसमें सरगी की पत्ती का प्रयोग किया जाता है ।
  • पत्ता शिल्प के कलाकार मूलतः झाडू बनाने वाले होते हैं।
  • पत्तों से अनेक कलात्मक और उपयोगी वस्तुएं बनायी जाती है।
  •  छिंद के पत्तों के कलात्मक खिलौने, चटाई, आसन, दूल्हा दुल्हन के मोढ़ (मौर ), खिलौने, सज्जा वस्तुएं आदि बनाये जाते है । कोमल पत्तों का उपयोग कर अनेक दैनिक उपयोग की वस्तुएं कुछ जनजातियों की आय का जरिया है ।
  • सरगुजा, रायगढ़, बस्तर, राजनांदगांव, में ये शिल्प देखने को मिलता है। पत्ते कला
  1. कंघी कला 

  • जनजाति जीवन में कंघिया सौन्दर्य एवं प्रेम का प्रतीक मानी गई है ।
  •   बस्तर में कंघी प्रेम विशेष उल्लेखनीय है। छत्तीसगढ़ की मुरिया जनजाति कंघियों में घड़ाइ् के सुंदर अंलकरण के साथ ही रत्नों की जड़ाई एवं मीनाकरी करने में सिद्धहस्त है ।
  • राज्य मं कंघी बनाने का श्रेय बंजारा जाति को दिया गया है।
  • इसके उदाहरण जगदलपुर के मानव संग्रहालय में देखे जा सकते है ।
  1. धातु कला

  •   छत्तीसगढ़ में धातुओं को शिल्प कला में परिवर्तित करने का कार्य बस्तर की घड़वा जाति, सरगुजा की मलार, कसेर, भरेवा जाति तथा रायगढ़ की झारा जाति करती है।
  •  छत्तीसगढ़ की धातु कला हमारी आदिवासी संस्कृति को पहचानने का सबसे आसान तरीका है, जिसमें प्रमुख रुप से घड़वा, ढोकरा, मलार एवं सामान्य लोहे कला स्वर्णिम उपस्थिति बनाए हुए हैं। जहां घड़वा कला अपने दृष्टिगोचर स्वरूप के लिए प्रसिद्ध है,
    वही देवी-देवताओं एवं पशु-पक्षियों की रूपंकर मूर्तियों के लिए सरगुजा की मलार जनजाति प्रसिद्ध है । वही रायगढ़ की झारा जनजाति द्वारा बनाए गए ढोकरा कला अपने अदम्य स्वरुप स्वरुप को परिभाषित करती है, जिसकी वजह से मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ कला बोर्ड द्वारा उन्हें संरक्षित करने के साथ-साथ राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।
    घड़वा कला – जिसमें प्रमुख रुप से पीतल, कांसे, तांबा, कोसा एवं मोम को संग्रहित किए हुए “भ्रष्ट मोम” पद्धति के आधार पर कुछ अनभिज्ञ मूर्तियों के साथ-साथ जनजाति साँस्कृतिक-सामाजिक व्यवस्था एवं संस्कृति को उकेरता है । जहां घड़वा का निर्माण बस्तर संभाग में होता है वही इसका संकेंद्रण कोंडागांव में माना जाता है । वस्तुतः घड़वा शिल्प कला आदिवासियों के देव लोक एवं धार्मिक अनुष्ठानों से भी जोड़ा जा सकता है ।
  • जिस के प्रमुख कलाकार जयदेव बघेल मानिक लाल गढ़वा सुखचंद प्रसाद
  •  ढोकरा शिल्प – रायगढ़ क्षेत्र में निवास करने वाली झारा जनजातियों द्वारा मिट्टी के आधार के साथ पीतल एवं कांसे या बेल मेटल के साथ मिलाकर ढोकरा शिल्प को मूर्त देते हैं । इसका संकेंद्रण एकताल में है । प्रमुख कलाकार – गोविंद राम झारा रामलाल झारा
  • मलार कला सरगुजा के मल्हार जनजातियों द्वारा देवी देवताओं एवं पशु पक्षियों की मूर्तियों को उकेर या रूप देकर इसके धार्मिक या सांस्कृतिक आयोजनों में महत्व को यथास्थित बनाए हुए हैं ।
  • ये विविध प्रकार के रूपाकारों – मूर्तियों का निर्माण करते हैं । मलार जाती के लोग स्थानीय आदिवासियों की मांग पर, उनके देवी देवता, पशु पक्षी आदि की मूर्तियों का निर्माण करते हैं । इसके अलावा विविध प्रकार के दीपक (चिमनी) का निर्माण मलार कला की अपनी निजी विशेषता हैं । “झारा जाती ” के अनेक कलाकारों को मद्य प्रदेश सरकार के द्वारा शिखर सम्मान प्राप्त हो चुका हैं ।
  • इसी तरह बस्तर अपने घड़वा लौह और बस्तर शिल्पा के लिए विश्व प्रसिद्धः हैं ।
  • चिमनी बनाने का प्रमुख कार्य मलार जनजाति किया जाता है ।
  1. घड़वा कला (Lost Wax Method/Process)

  •       सामग्री – धातुओं (पीतल, कांसा) और मोम को ढालकर विभिन्न वस्तुओं, आकृतियों को गढ़ने की घड़वाकला छत्तीसगढ़ में पर्याप्त रूप से प्रचलित रही।
  •       जाति – बस्तर की घड़वा जाति का तो नाम ही इस व्यवसाय के कारण घड़वा है । जो घड़वा शिल्प कला में प्रसिद्ध है।
  •       बस्तर की प्रमुख शिल्पकार कसेर जाति के लोग अपनी परंपरागत कलात्मक सौंदर्य भाव के लिये ख्याति लब्ध है।
  •       घड़वा शिल्प के अंतर्गत देवी व पशु-पक्षी की आकृतियां तथा त्यौहारों में उपयोग आने वाले वाद्य सामग्री तथा अन्य घरेलू उपयोग वस्तुएं आती है।
  •       बस्तर के मुख्य घड़वा शिल्पकार- श्री पेदुम, सुखचंद, जयदेव बघेल, मानिक घड़वा है जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर भी सम्मानित किया गया हैं।

8. लौह शिल्प

  • बस्तर में लौह शिल्प का कार्य लोहार जाति के लोग करते है।
  • बस्तर में मुरिया माड़िया आदिवासियों के विभिन्न अनुष्ठानों में लोहे से बने स्तम्भों के साथ देवी-देवता, पशु-पक्षियों व नाग आदि की मूर्तियां प्रदत्त की जाती है।
  • लोहार जनजाति द्वारा संपूर्ण छत्तीसगढ़ में कृषि उपकरण, औजार, भौरा आदि द्बनाए जाते हैं ।
  1. तीर धनुष कला

  • धनुष पर लोहे की किसी गरम सलाख से जलाकर कालात्मक अंलकरण बनाने की परिपाटी बस्तर के मुरिया आदिवासी में देखने को मिलता है।
  1. प्रस्तर शिल्प 

  • बस्तर इस शिल्प के मामले में भी विशेष स्थिति रखता है।
  • यहां का चित्रकूट क्षेत्र तो अपने प्रस्तर शिल्प के लिये विशेष रूप से प्रसिद्ध है।
  1. मुखौटा कला 

  • मुखौटा मुख का प्रतिरूप है। मुखौटा एककला है।
  •   छत्तीसगढ़ के आदिवासियों में नृत्य, नाट्य, उत्सव आदि अवसरों में मुखौटा धारण करने की परंपरा है।
  • भतरा जनजाति के भतरानाट में विभिन्न मुखौटों का प्रचलन है।
  • बस्तर के मुरिया जनजाति के मुखौटे आनुष्ठानिक नृत्यों के लिये बनाये जाते हैं।
  • घेरता उत्सव के नृत्य अवसर पर मुखिया जिसे नकटा कहा जाता है, मुखौटा पहनता है।
  •       सरगुजा के पण्डो, कंवर और उरांव फसल कटाई के बाद घिरी उत्सव का आयोजन करते हैं और कठमुहा खिसरा लगाकर नृत्य करते हैं।
  1. ढोकरा शिल्प मेघनाथ स्तम्भ

कोरकू जनजाति द्वारा मेघनाथ खंभ का  निर्माण किया जाता है। सेमल स्तम्भ – भतरा जनजाति द्वारा होली के अवसर पर आयोजित डंडारी नाच का आरंभ सेमल स्तम्भ की परिक्रमा  के साथ होता है।

  1. कोसा शिल्प— 

  •  प्रदेश में प्राकृतिक कोसा (टसर) उत्पादन में बस्तर का पहला स्थान है । कोसा प्राकृतिक रूप से जंगलों में पाया जाता है , जिसे आदिवासी संग्रहित करते हैं ।
  •   आदिवासी सहकारी विकास संघ द्वारा जगदलपुर में टसर वस्त्र के उत्पादन के लिए कोसा बुनाई केंद्र स्थापित है ।
  •   यह प्रदेश का एकमात्र केंन्द्र है जहाँ धागाकरण, बुनाई, धुलाई, रंगाई, छपाई आदि की सम्पूर्ण प्रक्रिया होती है । यहॉ विक्रय हेतु एक शो रूम भी है । केन्द्र के पास 60 हऱथकरघा है ।
  •  आदिवासियों से कोकून की खरीददारी समर्थन मूत्नय पर की जाती है। बस्तर के आदिवासी कोसा कढाई, बुनाई में निपुण है । यहॉ की साड़ी और कपडे की- देश विदेश में माँग है ।
  1. घास कला

मसनी- मसनी का सामान्य अर्थ चटाई से है । जो एक विशेष प्रकार की घास बोथा से बनाई जाती है ।जो पानी के आसपास उगती है । सेला-  लक्ष्मी जगार का प्रतीकात्मक चिन्ह जो धान की बालियों से बनाया जाता है और जो गृह सज्जा एवं धार्मिक अनुष्ठान में प्रयोग में लाया जाता है। पुटका – इसका सामान्य नाम बेठ से है । जो धान के काटने के बाद कटने के बाद उसके पुआलों(पैरों) से गांठ बनाकर बैठ का निर्माण किया जाता है । रस्सी बटाई – स्थानीय महारा जाती के लोंगों द्वारा सन की छालों से एवं भेड़ा(घास) से विभिन्न कलाकृतिया या सामान्य शब्दों में रस्सियों का निर्माण करते हैं  

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