जनजातीय लोकनाट्य
- भतरा नाट्य
छत्तीसगढ़ का लोक नाट्य “भतरा नाट” उड़ीसा से लगाने वाले बस्तर के पूर्वी क्षेत्र में प्रचलित है, जहाँ भतरा जनजाति निवास करती है । इस नाट्य में प्रमुख रूप से भतरा जनजाति ही भाग लेती है । इसलिये इस शैली का नामकरण उन्हीं के नाम पर भतरा नाट पड़ गया है । भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित है। छत्तीसगढ़ का आदिवासी थिएटर कहा जाता है। क्षेत्र : बस्तर उद्भव : बस्तर के पूर्व शासक जब जगन्नाथपुरी की यात्रा पर गए थे तब वे अपने साथ बस्तर के बहुत से आदिवासियों को भी ले कर गए थे। वहाँ से आने के पश्चात उन्होंने अपने साथ जाने वाले यात्रियों को जनेऊ धारण करवा कर उन्हें हिंदू धर्मावलंबी बना लिया और उन्हें “भद्र जन” कहा ।
छत्तीसगढ़ का सम्पूर्ण सामान्य ज्ञान Cg Mcq Question Answer in Hindi: Click Now
इस भद्र शब्द का ही अपभ्रंश कालांतर में भतरा हो गया । जगन्नाथ पुरी से वापस आ कर बस्तर में भी जगन्नाथ का मंदिर बनवाया और भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का आयोजन करने लगे । जगन्नाथपुरी में रथ यात्रा के अवसर पर आयोजित नृत्य, नाट्य, जन संकीर्तन आदि परम्पराओं के प्रभाव भी बस्तर की रथ यात्रा में अपनाए जाने लगा । उन सभी परम्परों के मध्य भतरा नाट्य का उद्भव हुआ। विशेषता: वर्तमान में भी भतरा नाट पर उडिया प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पडता है । 20वी शताब्दी के आरंभिक काल तक भतरा नाट के मुखौटे व वेशभूषा जगन्नाथपुरी से ही मँगाए जाते थे ।
नाट की पोथियाँ भी उडिया भाषा में ही उपलब्ध हैं । भतरी एक स्वतन्त्र भाषा है, जो छत्तीसगढ़ी व हल्बी भाषा का विस्तार मानी जाती है । जिस पर उडिया भाषा का भी काफी प्रभाव दिखाई देता है । अधिकाँश भतरा नाट महाभारत, रामायण एवं पौराणिक आख्यानों के कथानकों पर ही केंद्रित रहते है । रावण वध, कंस वध, कीचक वध आदि नाट्य अधिक लोकप्रिय हैं । भतरा नाट में भारत मुनि के नाट्य शास्त्र की अनेक बातें विद्यमान हैं । “नट नटी का प्रवेश” और प्रस्तावना, मंचन के पूरे समय तक “विदूषक का टेढी मेढी लकड़ी” लेकर उपस्थित रहना, पूर्व रंग में गणेश एवं सरस्वती की आराधना करना आदि अनेक तत्व भतरा नाट में विद्यमान हैं जो नाट्य शास्त्र से उत्प्रेरित हैं। महिलाओं की भूमिका भी पुरुष निभाते है । विशेष: अधिकांश नाटक रामायण, महाभारत एवं अन्य पौराणिक कथाओं पर आधारित होते हैं । इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या पर आधारित नाट ने संपूर्ण बस्तर में धूम मचा दी थी ।
- माओपाटा नाट्य – छत्तीसगढ़ का लोक नाट्य परिचय: बस्तर का दूसरा नाट्य माओपाटा है, जो यहाँ कि मुड़िया जनजाति में प्रचलित है । यह लोक नाट्य बायसन(गौर) के शिकार कथा पर आधारित है, जिसमें आखेट पर जाने कि तैयारी से लेकर शिकार पूर्ण हो कर, शिकारियों के सकुशल वापस आने पर समारोह मनाने कि तैयारी तक की घटनाओं का नाटकीय मंचन किया जाता है।उद्भव: नाट्य क्षेत्र के विद्वानों का मत है कि नाट्य विधा का उद्भव आदिम काल में आखेट प्रसंगों के नाटकीय वर्णन से ही हुआ होगा । आखेट के पश्चात जब शिकारी वापस आते थे तो शिकार के अवसर पर घटित रोमांचक घटनाओं का वर्णन वह नाटकीय ढंग से अपने कबीले के लोगों के सम्मुख प्रस्तुत करते थे । इसी बिंदु पर नाटक का उद्भव हुआ होगा। वेशभूषा: नाट्य के लिए दो युवक गौर (बाइसन) बनते है । वे सींग, मुखौटा और कम्बल धारण करते है । शिकार पर भेजने एवं वापसी पर उत्सव मानाने में युवतियों की भागीदारी इस नाट्य में होती है ।विशेषता: आखेट से सकुशल लौटने पर वह अपने देवी देताओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करते है । इस अवसर पर वह अपने हथियारों और पैरों को भूमि पर पटक कर अपने भावनाएँ अभिव्यक्त करते है और उल्लास पूर्वक समूह रूप में चक्कर लगते है या पंक्तिबद्ध हो कर देवताओं का अभिवादन करते है और प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए भांति-भांति की चीत्कारें और आवजे निकालते है । अंत में “सिरहा देवता” को मदिरा अर्पित कर सभी आदिवासी मदिरापान करते है तथा आनंद मनाते है । इन अभिव्यक्तियों ने ही कालांतर में नृत्य और गीतों का रूप ग्रहण किया होगा ।
रहस
विषय : कृष्ण लीला का छत्तीसगढ़ी रूपांतरण छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख लोक नाट्य है । यह एक अनुष्ठानिक नाट्य है, जिसे प्रमुखतः ग्रामीण अंचलों में श्रद्धा भक्ति और मनोरंजन के सम्मिलित भाव से आयोजित किया जाता है । रहस का शाब्दिक अर्थ रास या रासलीला है ।
विषय – इसमें संगीत नृत्य द्वारा कृष्ण की विविध लीला अभिनय की जाती है । इसे एक ही पखवाड़े में किया जाता है । कथा आधार – श्रीमद् भागवत के आधार पर श्री रेवा राम द्वारा रहस की पांडुलिपिया बनाई गई थी और इसी आधार पर रहस का प्रदर्शन होता है। इसके आयोजन की तिथि कई माह पूर्व निर्धारित कर संपूर्ण गांव को ब्रज मंडल मानकर नाट्य सज्जा की जाती है । जाति -चितेरा जाति के कलाकारों द्वारा बनाई गई मिट्टी की विशाल मूर्तियां गांव के विभिन्न स्थानों पर स्थापित की जाती हैं। जिसमें कंस, भीम, अर्जुन, कृष्ण आदि देवी-देवताओं की मूर्ति होती है ।
मंच – इस लोक नाटक का आयोजन बेड़ा(रंगमंच) में किया जाता है । रहस प्रारंभ करने के पूर्व इसका प्रतीक “थुन्ह” गाड़ा जाता है। रहस्य के कुछ प्रसंग गांव के विभिन्न स्थानों पर होते हैं । जैसे कंस वध का आयोजन चौपाल में तथा शेष नाग का मंचन तालाब में होता है । पंडित के निर्देश पर रहस की समस्त क्रियाएं संपादित होती हैं । रहस की प्रस्तुति में अष्टछाप कवियों की रचनाओं का प्रभाव होता है। रहस का आयोजन काफी खर्चीला होता है।
भूमिका –रहस का सूत्रधार पात्र रासदारी कहलाता है।
उल्लेखनीय व्यक्ति – कौशल सिंह, विशेसर सिंह, केसरी सिंह, बिलासपुर के मंझला महाराज और बलि ग्राम के रेवाराम ‘कुलीवाला” ।
दही कांदो
छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र में आदिवासी कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर दही कांदो नामक नृत्य नाटक का प्रदर्शन करते हैं । यह करमा और रहस का मिलाजुला रूप है । इसमें कदम्ब या किसी वृक्ष के नीचे राधा कृष्ण की मूर्ति स्थापित कर इसके चारों ओर नृत्य करते हुए कृष्ण लीला का अभिनय होता है । कृष्ण के सखा मनसखा का पात्र इसमें विदूषक होता है और वही दही से भरा मटका फोड़ता है ।
खम्ब स्वांग
- खम्बे के आस-पास किये जाने वाला प्रहसन ।
- खम्ब का आशय यहां मेघनाथ खम्भ से है ।
- कोरकू आदिवासियों का यह सम्पूर्ण नाट्य है ।
- इसका आयोजन क्वांर नवरात्रि से देवप्रबोधिनी एकदशी तक किया जाता है ।
- मान्यता है कि रावण पुत्र मेघनाथ ने कोरकू जनजाति को विपत्ति से बचाया था इसलिए मेघनाथ की स्मृति में इसका आयोजन किया जाता है ।
- मनोरंजन के साथ साथ इसमें सामाजिक कुरीतियों पर भी चोट की जाती है ।
लोक कलाकार
- दाऊ रामचंद्र देशमुख – 1971 में चंदैनी गोदा का गठन किया था। देहाती कलामंच से संबंधित है ।
- दुलार सिंह मंदराजी – नाचा के भीष्म पितामह] इनके नाम पर छत्तीसगढ़ सरकार ने एक पुरस्कार की स्थापना की, रवेली नाचा पार्टी
- स्व. झाडूराम देवांगन – पण्डवानी गुरू, पण्डवानी को राष्ट्रीय पहचान दी।
- तीजनबाई पूनाराम निषाद इनके शिष्य है। तीजन बाई – पण्डवानी की वेदमती शैली की विख्यात गायिका। पण्डवानी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी। पद्म श्री सम्मानित ।
- दाऊ महासिंह चंद्राकर – इन्होंने लोरिक चंदा को खड़े साज शैली में प्रस्तुत किया था। लोकनाट्य, लोकनृत्य] लो कगीत आदि सभी सांस्कृतिक विधाओं में इन्होंने अमिट छाप छोड़ीं । सोनहा बिहान की स्थापना की ।
- स्व. सूरज बाई खाण्डे – भरथरी गायिका] चंदैनी और ढोला मारू में भी छाप छोड़ीं
- केदार यादव – सोनहा बिहाव में धूम मचाने वाले । इनका कैसेट रंग मतिहा प्रसिद्ध हुआ। स्व.
- देवदास बंजारे – पंथी नृत्य स्थापित करने वाले
- केसरी प्रसाद वाजपेयी – बरसती भैया के नाम से मशहूर । आकाशवाणी में उदघोषक रहें
- फिदा बाई मरकाम – दाऊ मंदरा जी की खेली नाचा पार्टी से इन्होंने कैरियर शुरू किया। मध्यप्रदेश शासन द्वारा तुलसी सम्मान से इन्हें सम्मानित किया गया।
- भैयालाल हेडाऊ – चंदैनी गोंदा] सोनहा बिहाव तथा सत्यजीत राय की सद्गति आदि में अभिनय कर चुके है। हबीब तनवीर – नाच्या को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई । मुख्य मंचन चरणदास चोर, आगरा बाजार, माटी के गाड़ी।