प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत सामान्य ज्ञान | Sources of Ancient Indian History

Prachin Bharatiya iItihas Ke Pramukh Srot Gk Question Answer in Hindi 

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत प्रश्नोत्तरी

(UPSC/IAS, IPS, PSC,Vyapam, Bank, Railway, police एवं अन्य सभी प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए उपयोगी है )

Q. प्राचीन भारतीय इतिहास के विभिन्न स्रोतों का वर्णन कीजिए ?

Ans: हमें प्राचीन इतिहास के विषय में जानकारी मुख्यत: चार स्रोतों से प्राप्त होती है। जो इस प्रकार है 

  1. धार्मिक ग्रन्थ
  2. लौकिक/धर्मनिरपेक्ष साहित्य
  3. पुरातात्विक साक्ष्य और
  4. विदेशियों का विवरण 

धार्मिक ग्रन्थ 

प्राचीन समय से ही भारत एक धर्म प्रधान देश रहा है। यहाँ प्राय: तीन धार्मिक धाराएँ- वैदिक, बौद्ध एवं जैन धर्म प्रवाहित हुई। वैदिक धर्मग्रन्थ को ब्राह्मण धर्मग्रन्थ भी कहा जाता है।

वैदिक धर्मग्रन्थ 

  • वेद शब्द का अर्थ ‘महत् ज्ञान’ अर्थात् पवित्र एवं आध्यात्मिक ज्ञान है। वेद शब्द संस्कृत के ‘विद्’ धातु से निर्मित है जिसका अर्थ है जानना।
  • वेदों के संकलनकर्ता महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास थे। कुछ लोगों ने वेदों को अपौरुषेय अर्थात् दैवकृत माना है। वेदों की कुल संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद, ऋग्वेद,

ऋग्वेद

  • चारों वेदों में सर्वाधिक प्राचीन है। ऋग्वेद से ही आर्यों की राजनीतिक प्रणाली एवं इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
  • ऋग्वेद अर्थात् ऐसा ज्ञान जो ऋचाओं/मन्त्रों में बद्ध हो। इन मन्त्रों का उच्चारण यज्ञों के अवसर पर होतृ ऋषियों द्वारा किया जाता है।
  • ऋग्वेद भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व की प्राचीनतम रचना है। इसकी रचनाकाल 1500 से 1000 ई.पू. मानी जाती है।
  • ऋग्वेद में कुल 10 मण्डल, 8 अष्टक, 1028 सूक्त एवं कुल 10,600 मन्त्र हैं। सूक्तों के पुरुष रचियताओं में गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज और वशिष्ट तथा स्त्री रचियताओं में लोपामुद्रा, घोषा, शची, पैलेमी और कक्षावृति प्रमुख हैं।
  • ऋग्वेद के दूसरे एवं सातवें मण्डल की ऋचाएँ सर्वाधिक प्राचीन हैं, जबकि पहला एवं दसवाँ मण्डल सबसे अन्त में जोड़ा गया है।
  • ऋग्वेद के दसवें मण्डल में सर्वप्रथम शूद्रों का उल्लेख मिलता है जिसे ‘पुरुषसूक्त’ के नाम जाना जाता है। इसी मण्डल में अद्वैत दर्शन के विकसित होने का संकेत मिलता है।  
  • लोकप्रिय गायत्री मन्त्र का उल्लेख ऋग्वेद के तीसरे मण्डल में मिलता है। विश्वामित्र द्वारा रचित यह मंत्र (गायत्री मंत्री) सूर्य देवता सावित्री (सविता) को समर्पित है।
  • ऋग्वेद के आठवें मंडल में मिली हस्तलिखित ऋचाओं को ‘खिल’ कहा गया है।
  • ऋग्वेद का नौवाँ मण्डल लगभग पूरी तरह से सोम (सम्भवतः एक वृक्ष) नामक देवता को समर्पित है।  चातुष्वर्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) समाज की कल्पना का आदि स्रोत ऋग्वेद के 10वें मंडल में वर्णित है। हलाँकि इसे क्षेपक अर्थात् बाद में जोड़ा गया माना जाता है।  
  • ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ हैं- शाकल, वाष्कल, आश्वलायन, शंखायन तथा माण्डुक्य
  • विष्णु के वामनावतार के तीन पगों के आख्यान का प्राचीनतम स्रोत ऋग्वेद है।

सामवेद

  • ‘साम’ का शाब्दिक अर्थ ‘गान’ है। सामवेद गान-प्रधान ग्रन्थ है।  
  • सामवेद में संकलित मन्त्रों को देवताओं की स्तुति और यज्ञ आदि के समय गाया जाता था।
  • सामवेद के मन्त्रों का गान सोमयज्ञ के समय ‘उद्गातृ’ नामक पुरोहित करते थे।
  • सामवेद में लगभग 1550 ऋचाएँ/मन्त्र हैं, जिनमें 75 को छोड़कर शेष ऋग्वेद से ली गयी हैं।
  • देवता विषयक विवेचन की दृष्टि से सामवेद का प्रमुख देवता ‘सविता’ या ‘सूर्य’ है।
  • भारतीय संगीत के इतिहास के क्षेत्र में सामवेद का महत्त्वपूर्ण योगदान है। सामवेद को भारतीय संगीत का जनक कहा जाता है।  
  • प्राचीन भारत में धार्मिक आंदोलन का इतिहास click now
  • सामवेद की तीन महत्त्वपूर्ण शाखाएँ हैं- कौथुम, जैमिनीय एवं राणायनीय।

यजुर्वेद

  • ‘यजुष’ का शाब्दिक अर्थ ‘यज्ञ’ है। इस वेद में विभिन्न यज्ञ-विधियों का संगह है। यजुर्वेद के
  • मन्त्रों का उच्चारण ‘अर्ध्वयु’ नामक पुरोहित करते थे।
  • यजुर्वेद में अनेक प्रकार के यज्ञों को सम्पन्न कराने की विधियों का उल्लेख है।
  • यजुर्वेद गद्य एवं पद्य दोनों में है। गद्य को ‘यजुष’ कहा गया है।
  • यजुर्वेद के दो मुख्य भाग हैं- कृष्ण यजुर्वेद एवं शुक्ल यजुर्वेद।।  
  • कृष्ण यजुर्वेद : इसमें छन्दोबद्ध मन्त्र तथा गद्यात्मक वाक्य हैं। इसकी मुख्य शाखाएँ हैं तैत्तरीय, काठक, कपिष्ठल, मैत्रायणी।।
  • शुक्ल यजुर्वेद : इसमें केवल मन्त्रों का समावेश है। इसकी मुख्य शाखाएँ हैं- माध्यन्दित तथा काण्व इस की संहिताओं को वाजसनेय भी कहा जाता है क्योंकि वाजसेनी के पुत्र याज्ञवल्क्य इसके द्रष्टा थे।
  • महर्षि पतन्जलि द्वारा वर्णित यजुर्वेद की 101 शाखाओं में से इस समय केवल निम्नलिखित पाँच- तैत्तरीय, काठक, कपिष्ठल, मैत्रायणी और वाजसनेय ही उपलब्ध हैं।
  • स्त्रियों की सर्वाधिक गिरी हुई स्थिति की जानकारी मैत्रायणी संहिता से मिलती है। इस संहिता में जुआ और शराब के बाद
  • स्त्री को पुरुष का तीसरा मुख्य दोष बताया गया है।
  • यजुर्वेद से उत्तर-वैदिक युग की राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन की जानकारी मिलती है।

अथर्ववेद

  • इस वेद की रचना ‘अथर्वा’ ऋषि द्वारा की गयी है। अतः अथर्वा ऋषि के नाम पर ही इसे अथर्ववेद कहते हैं। इसके दूसरे द्रष्टा आंगिरस ऋषि थे। अत: अथर्ववेद को अथर्वाङिरसवेद् भी कहा जाता है।
  • अथर्ववेद में कुल 20 मण्डल, 731 सूक्त एवं 5839 मन्त्र हैं। इस वेद के सभी 731 सूक्त पद्य एवं गद्य दोनों में हैं।  
  • अथर्ववेद के महत्त्वपूर्ण विषय हैं- ब्रह्मज्ञान, औषधि प्रयोग, रोग निवारण, जादू, मन्त्र एवं | टोना-टोटका आदि। इस वेद में ही कन्याओं के जन्म की निंदा की गयी है।
  • इस वेद की दो अन्य शाखाएँ हैं- पिप्पलाद् एवं शौनक।

ब्राह्मण  

  • यज्ञों एवं कर्मकाण्डों के विधान एवं इनकी क्रियाओं को भली-भाँति समझने के लिए जिन नवीन ग्रन्थों की रचना हुई, उस ग्रन्थ को ब्राह्मण साहित्य के नाम से जाना जाता है।
  • यज्ञ के विषयों का अच्छी तरह से प्रतिपादन करने का वर्णन ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलता है।
  • ब्राह्मण ग्रन्थों में वैदिक संहिताओं की गद्यात्मक व्याख्या है। ये ग्रन्थ अधिकतर गद्य में लिखे हुए प्राप्त होते हैं।  
  • प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण होते हैं। जैसे- ऋग्वेद के ऐतरेय एवं कौषीतकी ब्राह्मण, यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण या वाजसनेय ब्राह्मण, सामवेद के पंचविश या ताण्ड्य ब्राह्मण एवं अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण।
  • प्राचीन इतिहास के स्रोत के रूप में ऋग्वेद के बाद वैदिक साहित्यों में शतपथ ब्राह्मण का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

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आरण्यक

  • आरण्यकों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों का वर्णन है। इन ग्रन्थों को आरण्यक इसलिए कहा गया है, क्योंकि इन्हें अरण्य अर्थात् वन में पढ़ा जाता था।
  • आरण्यकों की कुल संख्या सात है-जो इस प्रकार है 
  1. ऐतरेय आरण्यक
  2. शांख्यान आरण्यक
  3. तैत्तरीय आरण्यक
  4. मैत्रायणी आरण्यक
  5. माध्यन्दिन बृहदारण्यक
  6. तल्वकार आरण्यक तथा
  7. जैमिनी आरण्यक

उपनिषद

  • उपनिषद का शाब्दिक अर्थ है ‘समीप बैठना’ अर्थात् ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने के लिए गुरु के समीप बैठना। इस प्रकार उपनिषद् एक ऐसा रहस्य ज्ञान है जिसे हम गुरु के सहयोग से ही समझ सकते हैं।
  • ब्रह्म विषयक होने के कारण उपनिषदों को ब्रह्मविद्या भी कहा जाता है।  
  • उपनिषदों में आत्मा, परमात्मा एवं संसार के संदर्भ में प्रचलित दार्शनिक विचारों का संग्रह है।
  • वस्तुत: उपनिषदों में प्राचीन भारत का दार्शनिक ज्ञान सुरक्षित है।  
  • वैदिक साहित्य के अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को ‘वेदान्त’ भी कहा जाता है। उपनिषदों का रचनाकाल 800-500 ई.पू. के मध्य माना जाता है।
  • उपनिषदों में जिस निष्काम कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग दर्शन का प्रतिपादन किया गया उसका
  • विकास भगवद्गीता में हुआ।
  • उपनिषदों की संख्या 108 है। इनमें से प्रमुख उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, माण्डूक्य, तैत्तरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक, श्वेताश्वर, कौषीतकी, मुण्डक, प्रश्न आदि। भारत का प्रसिद्ध राष्ट्रीय आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ मुण्डकोपनिषद् से ही लिया गया है।

वेदांग

  • वेदांग शब्द से अभिप्राय है- जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिलेवेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने में वेदांग काफी सहायक हैं।
  • वेदांगों की कुल संख्या छः है ,जो इस प्रकार है
  1. शिक्षा- वैदिक वाक्यों के स्पष्ट उच्चारण हेतु इसका निर्माण हुआ। वैदिक शिक्षा सम्बन्धी प्राचीनतम साहित्य ‘प्रतिशाख्य’ है।
  2. कल्प- वैदिक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करवाने के लिए निश्चित किये गये विधि-नियमों  का प्रतिपादन ही ‘कल्पसूत्र’ कहलाता है।
  3. व्याकरण- इसके अन्तर्गत समासों एवं सन्धि आदि के नियम, नामों एवं धातुओं की रचना, उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग आदि के नियम बताये गये हैं। पाणिनिकृत अष्टाध्यायी संस्कृत भाषा व्याकरण की प्रथम पुस्तक है।
  4. निरूक्त- शब्दों की व्युत्पत्ति एवं निर्वचन बतलाने वाले शास्त्र निरूक्त कहलाते हैं। क्लिष्ट वैदिक शब्दों के संकलन ‘निघंटु’ की व्याख्या हेतु यास्क ने निरूक्त की रचना की थी। निरूक्त को भाषा शास्त्र का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है।
  5. छन्द – वैदिक साहित्य में मुख्य रूप से गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, वृहती आदि छन्दों का प्रयोग किया जाता है।
  6. ज्योतिष- इसमें ज्योतिष शास्त्र के विकास को दिखाया गया है।

स्मृतियाँ

  • स्मृतियों को ‘धर्मशास्त्र’ भी कहा जाता है। मानव जीवन से सम्बद्ध अनेक क्रियाकलापों के बारे में असंख्य विधि-निषेधों की जानकारी इन स्मृतियों से मिलती है।
  • स्मृतियों में सबसे प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण मनुस्मृति है। ई.पू. 200 से 200 ई. के मध्य रचित
  • मनुस्मृति को मानव धर्मशास्त्र भी कहा जाता है। अन्य स्मृतियों में उल्लेखनीय हैं – याज्ञवलक्य, विष्णु एवं नारदस्मृति अधिकांश स्मृतियों की रचना गुप्त और गुप्तोत्तर काल में हुई। इन पर अनेक टीकाएँ भी लिखी गयीं।  
  • मेधातिथि, भारूचि, कुल्लूक भट्ट, गोविंदराय आदि टीकाकारों ने मनुस्मृति पर टीका/ भाष्य लिखे।
  • विश्वरूप, अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि ने याज्ञवलक्य स्मृति पर भाष्य लिखे।

महाकाव्य

  • रामायण एवं महाभारत भारत के दो सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य हैं। यद्यपि इन दोनों के रचनाकाल के विषय में काफी विवाद है, फिर भी कुछ उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर इन महाकाव्यों का रचनाकाल चौथी शती ई.पू. से चौथी शती ई. के मध्य माना गया है। जो इस प्रकार है 
  1. रामायण– रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि द्वारा पहली एवं दूसरी शताब्दी के दौरान संस्कृत भाषा में की गयी। महर्षि बाल्मीकि कृत रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे जो कालांतर में 12000 हुए और पुन: 24000 हो गये। इसे चतुर्विंशति साहस्त्री संहिता भी कहा गया है।
  • बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण सात काण्डों- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड एवं उत्तरकाण्ड में बँटा हुआ है।  
  • रामायण द्वारा उस समय की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है।
  1. महाभारत- महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत महाकाव्य रामायण से वृहद है। लगभग 950 ई.पू. में हुए भरत-युद्ध का विस्तृत रूप ही महाभारत है। इसका अन्तिम संकलन गुप्तकाल में हुआ।
  • महाभारत में प्रारंभ में सिर्फ 8,800 पद्य/श्लोक थे और इसे जयसंहिता (विजय सम्बन्धी ग्रन्थ) के नाम से जाना जाता था। बाद में श्लोकों की संख्या 24,000 होने तथा वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा होने के कारण भारत कहलाया। अंतिम संकलन के समय पद्यों की संख्या एक लाख होने पर यह ‘शतसाहस्त्री संहिता’ या महाभारत कहलाया। महाभारत का प्रारम्भिक उल्लेख आश्वलायन गृहसूत्र में मिलता है।
  • महाभारत महाकाव्य 18 पर्वो- आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शान्ति, अनुशासन, अश्वमेघ, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रास्थानिक एवं स्वर्गारोहण में विभाजित है।
  • इस महाकाव्य से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है।

पुराण

  • पुराण का शाब्दिक अर्थ है- प्राचीन आख्यान।  
  • इससे राजाओं की वंशावलियों तथा तत्कालीन समाज, धर्म, तीर्थ, भूगोल इत्यादि के बारे में जानकारी मिलती है।
  • पुराणों के पाँच लक्षण बताये गए हैं जो इस प्रकार हैं- सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित।
  • पुराणों की कुल संख्या 18 है। जिसमें विष्णु, ब्रह्मा, भागवत्, वायु, मत्स्य तथा भविष्य पुराण सर्वाधिक प्राचीन है।
  • विष्णु, मत्स्य, वायु तथा भागवत् पुराण सर्वाधिक ऐतिहासिक महत्त्व के हैं, क्योंकि इनमें राजाओं की वंशावलियाँ दी गयी है।
  • मत्स्य पुराण सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रमाणिक है।
  • विष्णु पुराण मौर्य एवं गुप्त वंश से सम्बन्धित विशेष जानकारी मिलती है।
  • वायु पुराण से शुंग वंश की जानकारी मिलती है। गुप्त साम्राज्य की सीमाओं की जानकारी हेतु वायु पुराण सर्वाधिक प्रमाणिक माना जाता है।
  • मत्स्य पुराण आंध्र-सातवाहन वंश से सम्बन्धित है।  
  • पुराणों का संकलन करने वालों ने कृत (सत्), त्रेता, द्वापर एवं कलि नामक चार युगों का वर्णन किया है। प्रत्येक युग के बारे में कहा गया है कि आगे आने वाला युग अपने पीछे के युग की तुलना में पतनशील होगा।

बौद्ध धर्मग्रन्थ/बौद्ध साहित्य 

  • बौद्ध धर्म के उद्भव और विकास के साथ ही एक विशाल साहित्य की भी रचना हुई। हालाँकि ब्राह्मण ग्रन्थों की तरह बौद्ध धर्मग्रन्थ भी धर्मप्रधान साहित्य है, लेकिन इनमें प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृति महत्त्व की अनेक बातें भी देखने को मिलती हैं।
  • आरम्भिक बौद्धग्रन्थ पालि-भाषा में लिखे गये थे।
  • अंगुत्तर निकाय नामक बौद्धग्रन्थ से छठी शताब्दी ई.पू. के सोलह महाजनपदों का उल्लेख मिलता है।
  • खुद्यक निकाय नामक बौद्धग्रन्थ में जातक कथाओं जिनकी संख्या लगभग 547 है का वर्णन किया गया है। जातक कथाएँ यद्यपि मूलत: बुद्ध के पूर्वजन्म/पूर्वजीवन से सम्बद्ध है।  
  • जातकों से गणतन्त्रों, नागरिक जीवन, प्रशासनिक व्यवस्था, अस्पृश्यता, दासों की स्थिति, व्यापार-वाणिज्य के प्रचार-प्रसार आदि की जानकारी प्राप्त होती है। जातक कथाओं में बुद्ध के समकालीन राजाओं के नामों का भी उल्लेख मिलता है।
  • बौद्ध साहित्य के तीन विभिन्न बौद्धग्रन्थों का सम्मिलित नाम ही त्रिपिटक है। त्रिपिटक का पालि-साहित्य में विशेष स्थान है। त्रिपिटक के अन्तर्गत शामिल तीन बौद्ध साहित्य निम्नवत् है
  1. सुत्तपिटक : यह त्रिपिटकों में सबसे बड़ा एवं श्रेष्ठ है। इसमें बुद्ध ने धार्मिक विचारों एवं | उपदेशों का संग्रह है। यह पिटक पाँच निकायों में विभाजित है।

क. दीर्घनिकाय : गद्य और पद्य शैली में रचित इस निकाय में बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का समर्थन एवं अन्य धर्मों के सिद्धान्तों को खण्डन किया गया। इस निकाय का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सूक्त है महापरिनिब्यानसुत। इस निकाय में महात्मा बुद्ध के जीवन के आखिरी क्षणों का वर्णन है।

ख, मज्झिम निकाय : इसमें महात्मा बुद्ध को कहीं साधारण मनुष्य के रूप में तो कहीं अलौकिक शक्ति वाले दैवी रूप में वर्णित किया गया है।

ग. संयुक्त निकाय : गद्य एवं पद्य दोनों शैलियों के प्रयोग वाला यह निकाय अनेक ‘संयुक्तों का संकलन मात्र है।

घ. अंगुत्तर निकाय : 11 निपातों में संगठित इस निकाय में महात्मा बुद्ध द्वारा भिक्षुओं को उपदेशों में कही जाने वाली बातों का वर्णन है।

ङ. खुद्दक निकाय : भाषा, विषय एवं शैली की दृष्टि से सभी निकायों से अलग लघु ग्रन्थों के संकलन वाला यह निकाय अपने आप में स्वतन्त्र एवं पूर्ण है। इसके कुछ अन्य ग्रन्थ इस प्रकार हैं- खुद्यक पाठ, धम्मपद, उदान, इतिबुत्तक, सुनिनिपात, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा एवं जातक। जातकों में बुद्ध के पूर्व जन्म से सम्बन्धित कहानियों का संकलन है।

  1. विनयपिटक : इस ग्रन्थ में मठ निवासियों के अनुशासन सम्बन्धी नियम दिये गये हैं। यह पिटक चार भागों में विभक्त है- (क) पातिभोक्ख (ख) सुत्त विभंग (ग) खंधक एवं (घ) परिवार।
  2. अभिधम्म पिटक : इसमें बौद्ध मन्त्रों की दार्शनिक व्याख्या की गयी है। बौद्ध परम्परा की ऐसी मान्यता है कि इस पिटक का संकलन अशोक के समय सम्पन्न तृतीय बौद्ध संगीति में मोग्गलिपुत्त तिस्स ने किया। इस पिटक के अन्य सात ग्रन्थ हैं- धम्मसंगणि, विभंग, धातुकथा, पुग्गलपञ्चत्ति, कथावस्तु, यमक, पत्थान ग्रन्थ आदि।
  • त्रिपिटकों के अतिरिक्त पालिभाषा में लिखे गये कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं- मिलिन्दपन्हों, दीपवंश एवं महावंश। इन तीनों में से प्रथम ग्रन्थ में यूनानी नरेश मीनेण्डर (मिलिन्द) एवं बौद्ध भिक्षु नागसेन के बीच वार्तालाप का वर्णन है जबकि अन्तिम दो महाकाव्य हैं और इनकी रचना श्रीलंका में हुई।
  • अन्य प्रमुख बौद्ध ग्रन्थों में अशोकावदान, अवदानशतक, दिव्यावदान, बुद्धचरित, सौन्दरानन्द,आर्यमंजुश्रीमूलकल्प इत्यादि।

जैन धर्म ग्रन्थ/जैन साहित्य

  • जैन धर्म ग्रन्थों की रचना मुख्यतः प्राकृत भाषा में हुई।
  • जैन साहित्य को ‘आगम’ कहा जाता है। इन आगम ग्रन्थों की रचना सम्भवत: श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद की गयी।
  • जैन ग्रन्थों में प्रमुख परिशिष्टपर्व, आचारांगसूत्र, कल्पसुत्र, भगवतीसूत्र, उवासगदसाओसुत्र, भद्रबाटुचरित, त्रिषष्टिशलाका, पुरुषचरित इत्यादि महत्त्वपूर्ण हैं।
  • आचारांगसूत्र से जैन भिक्षुओं के विधि-निषेधों एवं आचार-विचारों का विवरण एवं भगवतीसूत्र से महावीर स्वामी के जीवन शिक्षओं आदि के विषय में जानकारी मिलती है।

लौकिक/धर्मनिरपेक्ष साहित्य  

  • इस प्रकार के साहित्य से तत्कालीन भारतीय समाज के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को जानने में काफी मदद मिलती है। इस प्रकार की कृतियों में प्रमुख हैं-
  • अर्थशास्त्र और राजतरंगिणी। ३ अर्थशास्त्र की रचना चाणक्य ने मौर्यकाल में की थी। चाणक्य को विष्णुगुप्त एवं कौटिल्य नाम से भी जाना जाता है। लगभग 6000 श्लोकों वाले इस ग्रन्थ से मौर्यकालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक स्थिति की स्पष्ट जानकारी मिलती है। 15 खण्डों में विभाजित इस ग्रन्थ का द्वितीय एवं तृतीय खण्ड सर्वाधिक प्राचीन है।
  • अर्थशास्त्र में मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था विशेषतया चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन की अच्छी जानकारी मिलती है।
  • अर्थशास्त्र की विषय-वस्तु बहुत कुछ यूनानी दार्शनिक अरस्तू के पॉलिटिक्स और मेकियावेली के प्रिंस से मिलती-जुलती है।
  • राजतरंगिणी से भी प्राचीन भारत के विषय में कुछ जानकारी मिलती है। कल्हण द्वारा 12वीं शताब्दी में रचित इस ग्रन्थ में कश्मीर के राजनीतिक इतिहास का वर्णन तो किया ही गया है, साथ-साथ सांस्कृतिक जीवन की भी इस ग्रन्थ से महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।  
  • विद्वानों का एक बड़ा वर्ग राजतरंगिणी को प्राचीन भारत का एकमात्र ऐतिहासिक ग्रन्थ मानता है।
  • गार्गी संहिता से यूनानी आक्रमण का उल्लेख मिलता है। इसकी रचना लगभग प्रथम शताब्दी
  • में की गयी थी।  
  • चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं पाँचवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में कालीदास द्वारा संस्कृत में रचित मालविकाग्निमित्रम से पुष्यमित्र शुंग एवं उसके पुत्र अग्निमित्र के समय के राजनीतिक घटनाचक्र तथा शुंग एवं यवन संघर्ष का उल्लेख मिलता है।  
  • बाणभट्ट कृत हर्षचरित से हर्षवर्द्धन के जीवन तथा उस समय के भारत के इतिहास की
  • जानकारी मिलती है।
  • 5 7वीं-8वीं शताब्दी में लिखी गयी कामंदक के नीतिशास्त्र से उस समय के आचार-व्यवहार के बारे में जानकारी मिलती है।
  • शुद्रक द्वारा रचित मृच्छकटिकम नाटक से गुप्तकालीन सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है।
  • नवसाहसांकचरित की रचना पद्मगुप्त परिमल द्वारा की गयी। ग्यारहवीं शती ई. में रचित इस ग्रन्थ से परमारवंश, सिन्धुराज नवसाहसांक के इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है। इस
  • ग्रन्थ को संस्कृत साहित्य का प्रथम ऐतिहासिक महाकाव्य माना जाता है।
  • वाक्पतिराज द्वारा प्राकृत भाषा में रचित गौड़वाहो ग्रन्थ से कन्नौज नरेश यशोवर्मा के विजयों के विषय में जानकारी मिलती है।  
  • विल्हण कृत विक्रमांकदेवचरित से कल्याणी के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ के विषय में जानकारी मिलती है।
  • जयसिंह कृत कुमारपालचरित से गुजरात के शासक कुमारपाल के विषय में जानकारी मिलती है।
  • मेरूतुंगाचार्य कृत प्रबंधचिंतामणि से जिसकी रचना 1305 ई. में हुई थी विक्रमांक, सातवाहन,मूलराज, मुंज, नृप्रतिभोज, लक्ष्मणसेन, जयचन्द्र आदि के विषय में जानकारी मिलती है।
  • सोमेश्वर द्वारा रचित कीर्ति कौमुदी से चालुक्य वंशीय इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है।
  • पल्लव नरेश महेन्द्र प्रथम द्वारा रचित मत्तविलासप्रहसन से तत्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है।  
  • महाकवि दण्डी की रचना अवंतिसुन्दरी कथा से पल्लवों के इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है।
  • पाणिनी कृत अष्टाध्यायी एवं महर्षि पतंजलि कृत महाभाष्य वैसे तो व्याकरण के ग्रन्थ माने जाते हैं किन्तु इन ग्रन्थों में कहीं-कहीं राजाओं-महाराजाओं एवं जनतन्त्रों के घटनाचक्र का विवरण मिलता है। जहाँ अष्टाध्यायी में गणतन्त्रात्मक व्यवस्था की अच्छी जानकारी मिलती है, वहीं पतंजलि के महाभाष्य में शुंगवंश के इतिहास की जानकारी मिलती है।
  • कालीदास (अभिज्ञान शाकुंतलम, मालिविकाग्निमित्रम, रघुवंशम्, मेघदूतम्), शूद्रक (मृच्छकटिकम), वात्स्यायन (कामसूत्रम), दण्डी (दशकुमारचरितम्) इत्यादि की रचनाएँ तत्कालीन सभ्यता-संस्कृतिको दर्शाती है।
  • गुप्तोत्तर काल के इतिहास की जानकारी का एक प्रमुख स्रोत जीवन चरित और स्थानीय इतिहास है।
  • बाणभट्ट, वाक्पति, विल्हण, संध्याकर नंदी एवं अन्य दरबारी इतिहासकारों ने अपने संरक्षकों कीजीवनियाँ लिखी। अनेक त्रुटियों के बावजूद इनसे तत्कालीन स्थिति पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है।
  • हर्षवर्द्धन के राज्य और उसके समय की जानकारी वाणभट्ट के हर्षचरित और कादंबरी से मिलती है।
  • हर्षवर्द्धन ने स्वयं तीन नाटकों- नागानंद, रत्नावली और प्रियदर्शिका की रचना की। इन नाटकों से हर्षकालीन सभ्यता संस्कृति एवं राजनीतिक जीवन की झांकी मिलती है।  
  • 1191-1193 के बीच कश्मीरी पण्डित जयानक द्वारा रचित पृथ्वीराज विजय से पृथ्वीराज चौहान तृतीय के विषय में जानकारी मिलती है।  
  • गुजरात में अनेक व्यापारियों के भी जीवन चरित लिखे गये।
  • रासमाला, प्रबन्धकोश, चचनामा एवं नेपाल में लिखे गये इतिवृत्त क्रमश: गुजरात, सिन्ध और नेपाल के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।
  • दक्षिण भारत का प्रारम्भिक इतिहास ‘संगम इतिहास’ से ज्ञात होता है। सुदूर दक्षिण के पल्लव  और चोल शासकों का इतिहास नन्दिकुलम्बकम, कलिंगत्तुपणि, चोल चरित्र आदि से प्राप्त होता है।
  • संगम साहित्य में प्रमुख हैं- एतुतोकई, पुरननुरू, पतुपतु तथा शिल्पादिकारम्।
  • संगम साहित्य में दक्षिण के तीन प्रमुख राजवंशों- पाण्ड्य, चोल और चैर के आरम्भिक इतिहास
  • का उल्लेख मिलता है। इस साहित्य में राजनीतिक इतिहास के अतिरिक्त सामाजिक व्यवस्था और आर्थिक प्रगति विशेषकर उद्योग-धंधे और विदेशी व्यापार के विकास पर भी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। यह साहित्य धर्मनिरपेक्ष साहित्य है।
  • तमिल साहित्य से भी प्राचीन भारतीय इतिहास विशेषकर दक्षिण भारत के इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है। तमिल साहित्य में संगम साहित्य का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। इन साहित्यों का विकास तीसरी-चौथी शताब्दियों में हुआ। इसका काल ईसा की प्रथम चार शताब्दियों को माना जाता है।
  • 11वीं शताब्दी में लिखित अतुल के मुषिक वंश नामक ग्रन्थ से केरल के मुषिक वंश के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।

पुरातात्विक साक्ष्य

  • पुरातात्विक साक्ष्य भी अनेक प्रकार के हैं: जैसे- उत्खनन से प्राप्त सामग्री-सिक्के, अभिलेख, प्राचीन स्मारक एवं कलाकृतियाँ

सिक्के/मुद्राएँ

  • प्राचीनकाल में सिक्के मिट्टी और धातु की बनायी जाती थी जिन पर प्रायः किसी नरेश, पदाधिकारी, गण, निगम, व्यापारी अथवा व्यक्ति विशेष के नाम एवं साक्ष्य होते थे। साधारणतया इन मुद्राओं में हमें 206 ई. पू. से 300 ई. तक के भारतीय इतिहास की जानकारी मिलती है।  
  • जिन सिक्कों एवं मुद्राओं पर लेख नहीं होते थे केवल चिह्न मात्र होते थे उनहें आहत सिक्के (Punch Marked) कहा जाता था।
  • सर्वप्रथम भारत में शासन करने वाले यूनानी शासकों के सिक्कों पर लेख एवं तिथियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं।
  • प्राचीनकाल के प्राप्त सर्वाधिक सिक्के उत्तर मौर्यकाल के हैं। ये सिक्के प्रधानतः सीसे, पोटीन, तांबे, कांसे, चाँदी और सोने के बने हुए हैं।  
  • कुषाणों के समय में सर्वाधिक शुद्ध सोने के सिक्के प्रचलन में थे, पर सर्वाधिक सोने के सिक्के गुप्तकाल में जारी किये गये।

अभिलेख  

  • पुरातात्विक स्रोतों में अभिलेख भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। ये अभिलेख अधिकांशत: स्तंभों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं, पात्रों, मूर्तियों गुफाओं में खुदे हुए मिलते हैं।
  • कुछ अभिलेख भारत के बाहर भी पाये गये हैं जिनसे भारतीय इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। उदाहरण के लिए एशिया माइनर का बोगजकोई अभिलेख (लगभग 1400 ई.पू.) अनेक वैदिक देवताओं यथा- इन्द्र, मित्र, वरूण एवं नासत्य आदि का उल्लेख करता है।
  • सुमेर (मेसोपोटामिया या ईराक) से प्राप्त मिट्टी के उत्कीर्ण मुहरों से भारत सिन्धुघाटी और सुमेर के व्यापारिक सम्बन्धों का पता चलता है। सिर्फ सिन्धुघाटी की सभ्यता से ही मुहरों पर उत्कीर्ण अनेक अभिलेख प्राप्त हुए हैं।
  • ऐतिहासिक काल में सबसे प्राचीन अभिलेख मौर्य-सम्राट के हैं। ये अभिलेख गुफाओं, शिलाओं और स्तंभों पर उत्कीर्ण हैं। इनसे अशोक के राज्यकाल की अनेक प्रमुख घटनाओं जैसे- कलिंग युद्ध, धर्ममहामात्रों की नियुक्ति, प्रशासनिक व्यवस्था में परिवर्तन एवं सुधार की जानकारी मिलती है।
  • अशोक के बाद अभिलेखों की परम्परा से जुड़े अन्य अभिलेख इस प्रकार हैं- खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, शकक्षत्रप रूद्रादमन का जूनागढ़ अभिलेख, सातवाहन नरेश पुलमावी का नासिक गुहालेख, हरिषेण द्वारा लिखित समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तंभलेख, मालवा नरेश यशोवर्मन का मंदसौर अभिलेख, चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख, प्रतिहार नरेश भोज का ग्वालियर अभिलेख, स्कंदगुप्त का भितरी तथा जूनागढ़ लेख, बंगाल के शासक विजय सेन का देवपाड़ा अभिलेख इत्यादि।
  • कुछ गैरसरकारी अभिलेख जैसे- यवन राजदूत, हेलियोडोरस का बेसनगर (विदिशा, मध्य प्रदेश) से प्राप्त गरूड़ स्तंभ लेख, जिसमें द्वितीय शताब्दी ई. पू. में भारत में भागवत् धर्म के विकसित होने के साक्ष्य मिलते हैं।
  • मध्यप्रदेश के एरण से प्राप्त बराह प्रतिमा पर हूण राजा तोरमाण के लेखों का विवरण है।
  • हड़प्पा कालीन अभिलेखों के बाद प्राचीनतम अभिलेख अशोक के हैं।
  • आरम्भिक अभिलेख प्राकृत भाषा में लिखे गये। बाद में संस्कृत एवं अन्य भाषाओं, जैसेतेलुगु एवं तमिल इत्यादि में अभिलेख लिखे गये। यह लिपि बायें से दायें की ओर लिखी जाती थी। ईसा की प्रथम शताब्दी से खरोष्ठी लिपि का भी व्यवहार हुआ। यह लिपि दाहिने से बायें की ओर लिखी जाती थी। उत्तरी-पश्चिमी सीमा से प्राप्त अशोक के कुछ अभिलेख आरामाइक लिपि में भी पाये गये हैं।

स्मारक एवं कलाकृतियाँ

  • प्राचीन स्मारकों से भी इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायता मिलती है।
  • प्राचीन भवनों, मंदिरों, गुफाओं के अवशेषों, मूर्तियों इत्यादि के आधार पर किसी युगविशेष की संस्कृति एवं कला का पता आसानी से लगाया जा सकता है।
  • हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, तक्षशिक्षा, मथुरा, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र इत्यादि स्थानों से प्राप्त भवनों के अवशेषों के आधार पर नगर निर्माण शैली का अंदाज मिलता है।
  • नालंदा एवं विक्रमशिला के खंडहरों से इन स्थानों की गरिमा प्रकट होती है।
  • तक्षशिला और मथुरा से प्राप्त मूर्तियों के आधार पर गंधार और मथुरा मूर्तिकला की जानकारी मिलती है। साँची, भरहुत के स्तूप, अजंता, ऐलोरा, एलिफैंटा, बाघ की गुफाएँ तथा दक्षिण भारत के मंदिर प्राचीन शिल्पकला, मूर्तिकला एवं चित्रकला के विकास पर प्रकाश डालते हैं।

विदेशियों के विवरण

  • भारत के सम्बन्ध में जिन विदेशियों ने लिखा उन्हें मुख्यतः तीन भागों में बाँटा जा सकता है, जो इस प्रकार है 
    1. यूनानी-रोमन लेखक
    2. चीनी एवं तिब्बती लेखक
    3. अरबी लेखक
  1. यूनानी-रोमन लेखक

  • यूनानी-रोमन लेखकों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है, जो इस प्रकार है  
  1. सिकंदर के पूर्व के लेखक
  2. सिकंदर के समकालीन लेखक
  3. सिकंदर के बाद के लेखक
  • सिकंदर के पूर्व के लेखकों में हिकेटिअस हेरोडोट्स, मिलेटस एवं केसिअस आदि प्रमुख हैं।
  • हेरोडोट्स जिसे इतिहास का पिता कहा जाता है, के विवरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है। कि यूनानियों के प्रभाव में आने से पूर्व ही भारतीय ईरान (फारस) के सम्पर्क में आ चुके थे। इन्होंने पाँचवीं शताब्दी ई.पू. में हिस्टोरिका नामक पुस्तक लिखी जिसमें भारत और ईरान के बीच सम्बन्धों का वर्णन है।
  • हिकेटिअस मिलेटस नामक यूनानी लेखक ने एक भूगोल की पुस्तक लिखी जिसमें सिन्धु प्रदेश | का प्राचीन विवरण उपलब्ध है।
  • केसिअस के विवरणों से भी भारत के विषय में जानकारी मिलती है।
  • सिकंदर के समकालीन लेखकों में अरिस्टोबुलस, नियाकेस, चारस, यूमेनीस, ओनेसिक्रिटस इत्यादि प्रमुख हैं।
  • अरिस्टोबुलस ने हिस्ट्री ऑफ दि वार (History of the War) नामक पुस्तक लिखी। ओनेसिक्रिटस ने सिकंदर की जीवनी लिखी।
  • सिकंदर के बाद के यूनानी-रोमन लेखकों में सेल्यूकस के राजदूत मेगास्थनीज का नाम सबसे अधिक प्रसिद्ध है। उसकी पुस्तक इंडिका (Indica) से मगध साम्राज्य की राजधानी तथा तत्कालीन राजनीतिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है।
  • अन्य यूनानी और रोमन लेखकों में- स्टैबो, डायोनीसियस, कर्टियस, डायोडोरस सिकुलस, पोलिविअस, प्लिनी, टॉलेमी इत्यादि के नाम महत्त्वपूर्ण हैं।
  • प्लिनी ने ईसा की पहल सदी में लैटिन में प्राकृतिक इतिहास (Natural History) और टॉलेमी ने यूननी भाषा में लगभग 150 ई. में भूगोल (Geography) लिखी। 80-115 ई. के बीच एक अज्ञात नाविक ने पेरिप्लस ऑफ दि एरिथ्रियन सी (Periplus of the Erythraean Sea) नामक पुस्तक लिखी। समुद्री व्यापार की गाइड के रूप में मानी जानी वाली यूनानी भाषा को इस पुस्तक में भारतीय बंदरगाहों से बाहर भेजी जाने वाली वस्तुओं का विवरण है।
  1. चीनी एवं तिब्बती लेखक

  • चीनी लेखकों के विवरणों से भी भारतीय इतिहास की जानकारी मिलती है।
  • सभी चीनी यात्री बौद्ध मतानुयायी थे और वे भारत इस धर्म के विषय में कुछ विशेष जानकारी के लिए ही आए थे। चीनी बौद्ध यात्रियों में से प्रमुख थे – फाह्यान, संयुगन, वेनसांग, हुईली इत्सिंग, मात्वानलिन, चाउ-जू-कुआ आदि।
  • फाह्यान गुप्त नरेश चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में आया था। इसने अपने विवरण में मध्य प्रदेश की जनता को सुखी एवं समृद्ध बताया है। फाह्यान ने विशेष रूप से बौद्ध धर्म पर लिखा है। वह भारत में लगभग 14 वर्षों तक रहा। ३ संयुगन 518 ई. में भारत आया। इसने अपने तीन वर्षों की यात्रा में बौद्ध धर्म की प्रतियाँ एकत्रित कीं।
  • ह्वेनसांग कन्नौज के शासक हर्षवर्धन (606-647 ई.) के शासनकाल में भारत आया। ह्वेनसांग 629 ई. में चीन से भारत वर्ष के लिए प्रस्थान किया और लगभग एक वर्ष की यात्रा के बाद सर्वप्रथम वह भारतीय राज्य कपिशा पहुंचा। भारत में लगभग 15 वर्षों तक ठहरकर वह 645 ई. में चीन लौट गया। उसने 6 वर्षों तक नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया।
  • वेनसांग के भारत यात्रा वृत्तांत को सी-यू-की नाम से जाना जाता है। इस यात्रा वृत्तांत में 138 देशों के यात्रा विवरण का जिक्र मिलता है। साथ ही हर्षवर्धन के समय की सामाजिक, ध शर्मिक, राजनीतिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। वेनसांग के अनुसार सिंध का राजा शूद्र था।
  • ह्वेनसांग के अध्ययन के समय नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति आचार्य शीलभद्र थे।
  • हुँइली ने बाद में वेनसांग की जीवनी (The Life Hsuan Tsiang) लिखी। वह वेनसांग का मित्र था।
  • एक अन्य चीनी यात्री इत्सिंग सातवीं सदी के अंत में भारत आया। इसने अपने विवरण में नालंदा एवं विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा उस समय के भारत पर प्रकाश डाला।
  • मारवान लिन ने हर्ष के पूर्वी आभियान एवं चाऊ-जू-कुआ ने चोलकालीन इतिहास पर प्रकाश डाला।
  • तिब्बती यात्रियों के विवरण भी भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायक हैं। तिब्बती लेखकों में लामा तारानाथ एवं धर्मस्वामी का नाम उल्लेखनीय है।
  • लामा तारानाथ की पुस्तक बौद्ध धर्म का इतिहास (History of Buddhism) पूर्व-मध्यकालीन भारतीय इतिहास के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
  • धर्मस्वामी के विवरणों से भी 13वीं शताब्दी के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। उसके विवरण से स्पष्ट कि 13वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक नालंदा महाविहार पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ था। तत्कालीन राजनीतिक इतिहास पर भी धर्मस्वामी के यात्रा-वृत्तांत से प्रकाश पड़ता है।
  1. अरबी लेखक

  • 8वीं शताब्दी में अरबों की सिन्ध पर विजय के पश्चात भारत का अरब संसार से सम्बन्ध बढ़ गया। अनेक व्यापारी यात्री अब भारत आने लगे। उन लोगों ने भारत का वर्णन अपने लेखों में किया।
  • तुर्की आक्रमण के समय से अनेक मुसलमान लेखक भी भारत आये, जिन्होंने यहाँ की स्थिति का वर्णन किया।
  • अरबी लेखकों में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान अलबेरूनी का है। उसने तहकीक-ए-हिंद (Tahqiq-i-Hind) में 11वीं शताब्दी में भारत का अच्छा वर्णन किया है। तहकीक-ए-हिंद को किताब-उल-हिन्द के नाम से भी जाना जाता है, वह महमूद गजनवी के समकालीन था।
  • अलबेरूनी के अतिरिक्त अल-बिलादुरी, सुलेमान, मिनहाजुद्दीन, अलमसूदी, फरिश्ता और मार्कोपोलो के विवरणों से भी पूर्व-मध्यकालीन भारतीय इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है।

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